ताड़ी पी रविकर लिखे, कागद रंगता जाय |
एग्रीगेटर की कृपा, दस में तीन छपाय |
दस में तीन छपाय, रचे रचना जो फाडू |
नो एक्सेस श्रीमान, जाय के खीसी काढूं |
काले अक्षर भैंस, हमारी काली वाणी |
तारकोल के पेज, यही तो दुनिया ताड़ी ||
हमारी वाणी पर नहीं प्रकाशित हो पाए दो ब्लॉग-पोस्ट-
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
"उच्चारण" पर हाय, पड़े गर्दन पर फंदा-
"महँगाई-छः दोहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मुंह की और मसूर की, लाल लाल सी दाल |
डाल-डाल पर बैठकर, खाते रहे दलाल |
खाते रहे दलाल, खाल खिंचवाया करते |
निर्धन श्रमिक किसान, मौत दूजे की मरते |
"उच्चारण" पर हाय, पड़े गर्दन पर फंदा |
सिसक सिसक मर जाय, आज का सच्चा बंदा ||
तभी पढ़ें जब आपके पास प्रमाण-पत्र हो !
चना अकेला चल पड़ा, खड़ा बीच बाजार |
ताल ठोकता गर्व से, जो फोड़ा सौ भार |
जो फोड़ा सौ भार, लगे यह लेकिन सच ना |
किन्तु रहे हुशियार, जरा घूँघट से बचना |
केवल मुंह को ढांप, निपटती प्रात: बेला |
सरे-शाम मैदान, सौंचता चना अकेला ||
घूँघट बुर्का डाल के, बैठ चौक पर जाय |
टिकट ख़रीदे क्लास जो, वो ही दर्शन पाय |
वो ही दर्शन पाय, आपकी मेहरबानी |
रविकर सा नाचीज, ढूँढिये बेहतर जानी |
सज्जन का क्या काम, निमंत्रित कर ले मुंह-फट |
दो सौ डालर डाल, उठा देंगे वे घूँघट ||
कौआमन अपने गिलहरी मित्रसे यूँ बोला तू चल मै पढता हूँ धीरे-धीरे बढता हूँ , टेबलपर मै बैठा हूँ बाइकपर बस चढ़ता हूँ मेरे हिस्से की फसल बह गई ! मन की बतिया मन में रह गई !!
मन-रेगा तन-रेगा -
(1)
मन-रेगा रेगा अरे, तन रेगा खा भांग |
रक्त चूस खटमल करें, रक्तदान का स्वांग |
रक्तदान का स्वांग, उदर-जंघा जन-मध्यम |
उटपटांग दो टांग, चढ़े अनुदानी उत्तम |
पर हराम की खाय, पाँव हाथी सा फूला |
जन जीवन अलसाय, तथ्य हर गाँव कबूला ||
(2)
(2)
रेगा होते जा रहे, लाभुक और मजूर |
बैठ कमीशन खा रहे, बिना काम भरपूर |
बिना काम भरपूर, मशीनें करैं खुदाई |
चढ़े चढ़ावा दूर, कहीं कागदे कमाई |
वैसे ग्राम-विकास, करे यूँ खूब नरेगा |
किन्तु श्रमिक अलसात, खेत-घर आधे रेगा ||