सर्ग-2
भाग-4
जन्म-कथा
सृंगी जन्मकथा
रिस्य विविन्डक कर रहे, शोध कार्य संपन्न ।
सृंगी पहली मर्तवा, देखें बाला रूप ।
कन्याओं का वेश भी, उनको लगा अनूप ।।
बाल सुलभ मुस्कान से, तृप्त हृदय हो जाय ।।
मातु-पिता के पास फिर, वह उनको ले जाय ।
इन बच्चों को देखकर, होते सभी प्रसन्न ।
सृंगी जी संकोच में, ग्रहण करें नहिं अन्न ।
तीन दिनों का यह समय, सृंगी के अनमोल ।
सार्वजनिक जीवन हुआ, भाये शांता बोल ।।
सृंगी जन्मकथा
रिस्य विविन्डक कर रहे, शोध कार्य संपन्न ।
विषय परा-विज्ञान मन, औषधि प्रजनन अन्न ।
विकट तपस्या त्याग तप, इन्द्रासन हिल जाय ।
तभी उर्वशी अप्सरा, ऋषि सम्मुख मुस्काय ।
शोध कार्य के वास्ते, करे स्वयं को पेश ।
ऋषि-पत्नी रखने लगी, उसका ध्यान विशेष ।
इस अतीव सौन्दर्य पर, होते ऋषि आसक्त ।
औषधि प्रजनन शोध पर, अधिक ध्यान अनुरक्त ।
इधर उर्वशी कर रही, कार्य इंद्र का सिद्ध ।
धीरे धीरे ही सही, प्रेम हुआ समृद्ध ।
ऋषि-पत्नी फिर एक दिन, करवा देती व्याह ।
प्रेम-पल्लवन के लिए, खुली चतुर्दिक राह ।
एक वर्ष पश्चात ही, पुत्र -जन्म हो जाय ।
गई उर्वशी स्वर्ग को, देती उन्हें थमाय ।।
हुवे विविन्डक जी दुखी, पुत्र जन्म के बाद ।
मस्तक पर दो सृंग हैं , सुन विचित्र अनुनाद ।
फिर भी प्यारा पुत्र यह, माता करे दुलार ।
ऋषिवर को पकड़ा रही, खोटी-खरी हजार ।
अपनी खोजों से किया, गलत गर्भ उपचार ।
इसीलिए तो शीश का, है विचित्र आकार ।।
कोसी तट पर पल रहा, आश्रम का यह नूर ।
गुप्त रूप से पालते, श्रृंग करें मजबूर ।
सृंगी तेरह वर्ष के, वह सुरम्य वनभाग ।
उच्च हिमालय तलहटी, सरिता झील तड़ाग ।
शिक्षा दीक्षा नियम से, ज्ञान उपासक श्रेष्ठ ।
नारी से अनजान हैं, चिंतित होते ज्येष्ठ ।
सत्पोखर में फिर बसे, रिस्य विविन्डक आय ।
संगम कोसी-गंग का, दृश्य रहा मनभाय ।
सृंगेश्वर की थापना, सृंगी से करवाय ।
देश भ्रमण को ऋषि चले, पत्नी लेकर जाय ।
जोर शोर से फैलता, सृंगेश्वर का नाम ।
राजा रानी शान्ता, आ पहुंचे इक शाम ।।
मंदिर में तम्बू लगा, करते सब विश्राम ।
शांता रूपा चंचला, घूम रही निष्काम ।
छोटी छोटी बालिका, जाती आश्रम बीच ।
सृंगी अपने कक्ष में, ध्यावें आँखे मीच ।
रूपा की शैतानियाँ, ध्यान हो गया भंग ।
इक दूजे को देख के, सृंगी-शांता दंग ।।
सृंगी पहली मर्तवा, देखें बाला रूप ।
कन्याओं का वेश भी, उनको लगा अनूप ।।
सोहे सृंगी सृंग से, शांता के मन भाय।
परिचय देती शान्ता, उनका परिचय पाय ।
परिचय देती शान्ता, उनका परिचय पाय ।
बाल सुलभ मुस्कान से, तृप्त हृदय हो जाय ।।
मातु-पिता के पास फिर, वह उनको ले जाय ।
इन बच्चों को देखकर, होते सभी प्रसन्न ।
सृंगी जी संकोच में, ग्रहण करें नहिं अन्न ।
तीन दिनों का यह समय, सृंगी के अनमोल ।
सार्वजनिक जीवन हुआ, भाये शांता बोल ।।
सर्ग-2 समाप्त