Wednesday 27 February 2013

मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता -10


सर्ग-2 
भाग-4
जन्म-कथा  
सृंगी जन्मकथा

 रिस्य विविन्डक कर रहे, शोध कार्य संपन्न ।

विषय परा-विज्ञान मन, औषधि प्रजनन अन्न ।



विकट तपस्या त्याग तप, इन्द्रासन हिल जाय ।

तभी उर्वशी अप्सरा, ऋषि सम्मुख मुस्काय ।



शोध कार्य के वास्ते, करे स्वयं को पेश ।

ऋषि-पत्नी रखने लगी, उसका ध्यान विशेष ।



इस अतीव सौन्दर्य पर, होते ऋषि आसक्त ।

औषधि प्रजनन शोध पर, अधिक ध्यान अनुरक्त ।



इधर उर्वशी कर रही, कार्य इंद्र का सिद्ध ।

धीरे धीरे ही सही, प्रेम हुआ समृद्ध ।



ऋषि-पत्नी फिर एक दिन, करवा देती व्याह ।

प्रेम-पल्लवन के लिए, खुली चतुर्दिक राह ।



एक वर्ष पश्चात ही,  पुत्र -जन्म हो जाय ।

गई उर्वशी स्वर्ग को, देती उन्हें थमाय ।।



हुवे विविन्डक जी दुखी, पुत्र जन्म के बाद ।

मस्तक पर दो सृंग हैं , सुन विचित्र अनुनाद ।



फिर भी प्यारा पुत्र यह, माता करे दुलार ।

ऋषिवर को पकड़ा रही, खोटी-खरी हजार ।



अपनी खोजों से किया, गलत गर्भ उपचार ।

इसीलिए तो शीश का, है  विचित्र आकार ।।



कोसी तट पर पल रहा, आश्रम का यह नूर ।

 गुप्त रूप से पालते, श्रृंग करें मजबूर ।



सृंगी तेरह वर्ष के, वह सुरम्य वनभाग ।

उच्च हिमालय तलहटी, सरिता झील तड़ाग ।



शिक्षा दीक्षा नियम से, ज्ञान उपासक श्रेष्ठ ।

नारी से अनजान हैं, चिंतित होते ज्येष्ठ ।



सत्पोखर में फिर बसे, रिस्य विविन्डक आय ।

संगम कोसी-गंग का, दृश्य रहा मनभाय ।



सृंगेश्वर की थापना, सृंगी से करवाय ।

देश भ्रमण को ऋषि चले, पत्नी लेकर जाय ।



जोर शोर से फैलता, सृंगेश्वर का नाम ।

राजा रानी शान्ता, आ पहुंचे इक शाम ।।   



मंदिर में तम्बू लगा, करते सब विश्राम ।

शांता रूपा चंचला, घूम रही निष्काम ।



छोटी छोटी बालिका, जाती आश्रम बीच ।

सृंगी अपने कक्ष में, ध्यावें आँखे मीच ।



रूपा की शैतानियाँ, ध्यान हो गया भंग ।

इक दूजे को देख के, सृंगी-शांता  दंग ।।


सृंगी पहली मर्तवा, देखें बाला रूप ।
कन्याओं का वेश भी, उनको लगा अनूप ।। 




सोहे सृंगी सृंग से, शांता के मन भाय।
परिचय देती शान्ता, उनका परिचय पाय ।

बाल सुलभ मुस्कान से, तृप्त हृदय हो जाय ।।
 मातु-पिता के पास फिर, वह उनको ले जाय ।

इन बच्चों को देखकर, होते सभी प्रसन्न ।
सृंगी जी संकोच में,  ग्रहण करें नहिं अन्न ।

तीन दिनों का यह समय, सृंगी के अनमोल ।
सार्वजनिक जीवन हुआ, भाये शांता बोल ।। 



सर्ग-2 समाप्त  

8 comments:

  1. आदरणीय गुरुदेव श्री प्रणाम मैं अनभिज्ञ था की प्रभु श्री राम की बहन भी थी, यह ज्ञान आपसे ही प्राप्त हुआ. ऐसा सुन्दर वर्णन आहा ह्रदय प्रसन्न हो गया जय हो

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  2. अनूठा कार्य है भाई जी ...
    बधाई !

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  3. बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति ,

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  4. यह हुई ना बात!
    इस काव्यखण्ड को जल्दी से पूरा कीजिए।

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  5. बहुत ही सार्थक काव्य रचना,आभार.

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  6. सर्वथा मौलिक और अनुपम सृजन है यह।
    साधुवाद !

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  7. सरल काव्य-पाठ आनंददायी है.

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