सर्ग-3
भाग-1 ब
एक दिवस की बात है, बैठ धूप सब खाँय |
घटना बारह बरस की, सौजा रही सुनाय ||
सौजा दालिम से कहे, वह आतंकी बाघ |
बारह मारे पूस में, पांच मनुज को माघ ||
सेनापति ने रात में, चारा रखा लगाय |
पास ग्राम से किन्तु वह, गया वृद्ध को खाय ||
नरभक्षी पागल हुआ, साक्षात् बन काल |
पशुओं को छूता नहीं, फाड़े मानव खाल ||
चारा बनने के लिए, कोई न तैयार |
कब से इक बकरा बंधा, महिना होवे पार ||
एक रात में जब सभी, बैठे घात लगाय |
स्त्री छाया इक दिखी, अंधियारे में जाय ||
एक शिला पर जम गई, उस फागुन की रात |
आखेटक दल के सहित, सेनापति घबरात ||
बिना योजना के जमी, उत अबला बलवीर |
हाथों में भाला इधर, सजा धनुष पर तीर ||
तीन घरी बीती मगर, लगा टकटकी दूर |
राह शिकारी देखते, आये बाघ जरूर ||
फगुआ गाने में मगन, गाये मादक गीत |
साया इक आते दिखी, बोली कोयल मीत ||
होते ही संकेत के, देते धावा मार |
घोर विषैले तीर से, होता बाघ शिकार ||
भालों के वे वार भी, बेहद थे गंभीर ||
छाती फाड़ा बाघ की, माथा देता चीर ||
शान्ता चिंतित दिख रही, बोली दादी बोल |
उस नारी का क्या हुआ, जिसका कर्म अमोल ||
सौजा बोली कुछ नहीं, मंद मंद मुसकाय |
माँ के चरणों को छुवे, दालिम बाहर जाय ||
सौजा ने ऐसे किया, पूरा पश्चाताप |
निश्छल दालिम के लिए, वर है माँ का शाप ||
शान्ता की शिक्षा हुई, आठ बरस में पूर |
वेद कला संगीत के, सीखे सकल सऊर ||
शांता विदुषी बन गई, धर्म-कर्म में ध्यान |
भागों वाली बन करे, सकल जगत कल्याण ||
गुणवंती बाला बनी, सुन्दर पायी रूप |
नई सहेली पा गई, रूपा दिखे अनूप ||
अवध पुरी में दुःख पले, खुशियाँ रहती रूठ |
राजमहल में आ रहे, समाचार सब झूठ ||
कई बार आये यहाँ, श्री दशरथ महराज |
बेटी को देकर गए, इक रथ सुन्दर साज ||
रथ पर अपने बैठ कर, वन विहार को जाय |
रूपा उसके साथ में, हर आनंद उठाय ||
रमण हमेशा ध्यान से, पूर्ण करे कर्तव्य |
रक्षक बन संग में रहे, जैसे रथ का नभ्य ||
बटुक परम नटखट बड़ा, करे सदा खिलवाड़ |
शान्ता रूपा खेलती, देता परम बिगाड़ ||
फिर भी वह अति प्रिय लगे, आज्ञाकारी भाय |
शांता के संकेत पर, हाँ दीदी कर धाय ||