Tuesday, 7 February 2017

खर-दूषण विस्तार, दुशासन बदले मुखड़े


मुखड़े पे मुखड़े चढ़े, चलें मुखौटे दाँव |
शहर जीतते ही रहे, रहे हारते गाँव |
रहे हारते गाँव, पते की बात बताता।
गया लापता गंज, किन्तु वह पता न पाता।
हुआ पलायन तेज, पकड़िया बरगद उखड़े |
खर-दूषण विस्तार, दुशासन बदले मुखड़े ||

3 comments:

  1. दिनांक 09/02/2017 को...
    आप की रचना का लिंक होगा...
    पांच लिंकों का आनंद... https://www.halchalwith5links.blogspot.com पर...
    आप भी इस प्रस्तुति में....
    सादर आमंत्रित हैं...

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  2. सहरी जीवन जीते-जीते गाँवों से बहुत दूर हो गए हैं हम............
    http://savanxxx.blogspot.in

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  3. बहुत बढ़िया हमेशा की तरह ..

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