| छंद कुण्डलिया : मिलें गहरे में मोती
--------अरुण कुमार निगम 
हलचल होती देह से, मन से
होता ध्यान 
लहरों को माया समझ, गहराई
को ज्ञान 
गहराई  को  ज्ञान , मिलें
 गहरे में  मोती 
सीधी-सच्ची बात, लहर
क्षण-भंगुर होती 
गहराई   में   डूब 
,  छोड़  लहरें  हैं चंचल 
मन से होता ध्यान, देह
से होती हलचल || | 
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बाँछे रविकर खिल गई, मिल जाता गुरु मन्त्र | 
हिलता तब अस्तित्व था, अब हिलता तनु-तंत्र | 
अब हिलता तनु-तंत्र, देह पर नहीं नियंत्रण | 
हो कैसे फिर ध्यान, करूँ कैसे प्रभु अर्पण | 
बड़ी कठिन यह राह, पसीना बरबस काछे | 
शेष रहे संघर्ष, पिछड़ती रविकर *बाँछे || 
*इच्छा 
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गुरु तर-कीबें दें बता, करूँ निवेदन आर्य |
करूँ निवेदन आर्य, उतरता जाऊं गहरे |
दिखे प्रबल संघर्ष, नहीं नियमों के पहरे |
बाहर का उन्माद, बने अन्तर की हलचल |
दे लहरों को मात, तलहटी ज्यादा चंचल ||