Thursday, 14 December 2017

काव्य पाठ २८ जनवरी

सोते सोते भी सतत्, रहो हिलाते पैर।
दफना देंगे अन्यथा, क्या अपने क्या गैर।।

दौड़ लगाती जिन्दगी, सचमुच तू बेजोड़ 
यद्यपि मंजिल मौत है, फिर भी करती होड़  
                                                            
रस्सी जैसी जिंदगी, तने-तने हालात. 
एक सिरे पर ख्वाहिशें, दूजे पे औकात .

है पहाड़ सी जिंदगी, चोटी पर अरमान.
चढ़े व्यक्ति झुककर अगर, हो चढ़ना आसान.

दल के दलदल में फँसी, मुफ्तखोर जब भेड़ ।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उसका ऊन उधेड़ ।।

गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर।
घर घर मरहम तो नही, मिलता नमक जरूर।।

अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ।
नहीं ठोक पाया कभी, खुद से खुद की पीठ।।

बेमौसम ओले पड़े, चक्रवात तूफान।
धनी पकौड़ै खा रहे, खाये जहर किसान।।

चाय नही पानी नही, पीता अफसर आज।
किन्तु चाय-पानी बिना, करे न कोई काज।।

चुरा सका कब नर हुनर, शहद चुराया ढेर।
मधुमक्खी निश्चिंत है, छत्ता नया उकेर।।

अधिक आत्मविश्वास में, इस धरती के मूढ़ |
विज्ञ दिखे शंकाग्रसित, यही समस्या गूढ़ ||

धर्म-कर्म पर जब चढ़े, अर्थ-काम का जिन्न |
मंदिर मस्जिद में खुलें, नए प्रकल्प विभिन्न ||

धनी पकड़ ले बिस्तरा, भाग्य-विधाता क्रूर ।
ले वकील आये सगे, रखा चिकित्सक दूर।।

छलके अपनापन जहाँ, रविकर रहो सचेत।
छल के मौके भी वहीं, घातक घाव समेत।।

होती पाँचो उँगलियाँ, कभी न एक समान।
मिलकर खाती हैं मगर, रिश्वत-धन पकवान ।।

जब से झोंकी आँख में, रविकर तुमने धूल।
अच्छे तुम लगने लगे, हर इक अदा कुबूल।।

भाषा वाणी व्याकरण, कलमदान बेचैन।
दिल से दिल की कह रहे, जब से प्यासे नैन।।

नहीं हड्डियां जीभ में, पर ताकत भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियां, देखो कभी जरूर ||

रुतबा सत्ता ओहदा, गये वक्त की बात।
वक्त मुरौव्वत कब करे, दिखला दे औकात।।

रविकर रोने के लिए, मिले न कंधा एक।
चार चार कंधे मिले, बिलखें आज अनेक।।

सराहना प्रेरित करे, आलोचना सुधार।
निंदक दो दर्जन रखो, किन्तु प्रशंसक चार।

मुक्तक 
मदर सा पाठ लाइफ का पढ़ाता है सिखाता है।
खुदा का नेक बन्दा बन खुशी के गीत गाता है।
रहे वह शान्ति से मिलजुल, करे ईमान की बातें
मगर फिर कौन हूरों का, उसे सपना दिखाता है।।

उमर मत पूछ औरत की, बुरा वह मान जायेगी।
मरद की आय मत पूछो, उसे ना बात भायेगी।
फिदाइन यदि मरे मारे, मियाँ तुम मौन रह जाना।
धरम यदि पूछ बैठे तो, सियासत जान खायेगी।।

कामार्थ का बैताल जब शैतान ने रविकर गढ़ा।
तो कर्म के कंधे झुका, वो धर्म के सिर पर चढ़ा।
मुल्ला पुजारी पादरी परियोजना लाकर कई
पूजाघरों से विश्व को वे पाठ फिर देते पढा।

बड़ी तकलीफ़ से श्रम से, रुपैया हम कमाते हैं ।
उसी धन की हिफाज़त हित बड़ी जहमत उठाते हैं।
कमाई खर्चने में भी, निकलती जान जब रविकर 
कहो फिर जिंदगी को क्यों कमाने में खपाते हैं।।

फिसलकर सर्प ऊपर से गिरा जब तेज आरे पर।
हुआ घायल, समझ दुश्मन, लिया फिर काट झुँझलाकर।
हुआ मुँह खून से लथपथ, जकड़ता शत्रु को ज्यों ही
मरे वह सर्प अज्ञानी,  यही तो हो रहा रविकर  ।।

होता अकेला ही हमेशा आदमी संघर्ष मे ।
जग साथ होता है सफलता जीत में उत्कर्ष में।
दुनिया हँसी थी मित्र, जिस जिस पर यहाँ गत वर्ष तक
इतिहास उस उस ने रचा इस वर्ष भारत वर्ष में।।

पतन होता रहा प्रतिपल, मगर दौलत कमाता वो ।
करे नित धर्म की निन्दा, खजाना लूट लाता वो।
सहे अपमान धन खातिर, बना गद्दार भी लेकिन
पसारे हाथ आया था, पसारे हाथ जाता वो।।

अरबपति पुत्र की माता, बनी कंकाल सड़ गलकर।
रहे रेमंड का मालिक, किराये की कुटी लेकर।
कलेक्टर खुदकुशी करता, कलह जीना करे दूभर।
हितैषी खोज तू, है व्यर्थ रुतबा शक्ति धन रविकर।

मुसीबत की करो पूजा, सिखाकर पाठ जायेगी।
करो मत फिक्र कल की तुम, हँसी रविकर उड़ायेगी।
यहाँ तो मौत आने तक मजे से हंस गाता है ।
वहीं वह मोर नाचा तो, मगर आँसू बहाता है।।

हरिगीतिका 
अलमारियों में पुस्तकें सलवार कुरते छोड़ के।
गुड़िया खिलौने छोड़ के, रोये चुनरियाओढ़ के।
रो के कहारों से कहे रोके रहो डोली यहाँ।
माता पिता भाई बहन को छोड़कर जाये कहाँ।
लख अश्रुपूरित नैन से बारातियों की हड़बड़ी।
लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।

हरदम सुरक्षित वह रही सानिध्य में परिवार के।
घूमी अकेले कब कहीं वह वस्त्र गहने धार के।
क्यूँ छोड़ने आई सखी, निष्ठुर हुआ परिवार क्यों।
अन्जान पथ पर भेजते अब छूटता घर बार क्यों।।
रोती गले मिलती रही, ठहरी नही लेकिन घड़ी।
लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।

आओ कहारों ले चलो अब अजनबी संसार में।
शायद कमी कुछ रह गयी है बेटियों के प्यार में।
तुलसी नमन केला नमन बटवृक्ष अमराई नमन।
दे दो विदा लेना बुला हो शीघ्र रविकर आगमन।।
आगे बढ़ी फिर याद करती जोड़ती इक इक कड़ी।
लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।

Tuesday, 17 October 2017

देह देहरी देहरा, दो दो दिया जलाय -

देह देहरी देहरा, दो दो दिया जलाय ।
कर उजेर मन गर्भ-गृह, दो अघ-तम दहकाय ।
दो अघ-तम दहकाय , घूर नरदहा खेत पर ।
गली द्वार-पिछवाड़, प्रकाशित कर दो रविकर।
जय जय लक्ष्मी मातु, पधारो आज शुभ घरी।
सुख-समृद्धि-सौहार्द, बसे मम देह देहरी ।।

देह, देहरी, देहरा = काया, द्वार, देवालय 
घूर = कूड़ा

Friday, 25 August 2017

मुक्तक


निज काम से थकते हुए देखे कहाँ कब आदमी।
केवल पराये काम से थकते यहाँ सब आदमी।
पर फिक्र धोखा झूठ ने ऐसा हिलाया अनवरत्
रविकर बिना कुछ काम के थकता दिखे अब आदमी।।

Tuesday, 22 August 2017

कहीं कुछ रह तो नहीं गया।।

मैया कार्यालय चली, सुत आया के पास।
पर्स घड़ी चाभी उठा, प्रश्न पूछती खास।
कहीं कुछ रह तो नहीं गया।
हाय रे मर ही गयी मया।।

अभी हुई बिटिया विदा, खत्म हुआ जब जश्न।
उठा लिया सामान सब, बुआ पूछती प्रश्न।।
कहीं कुछ रह तो नहीं गया।
घोंसला खाली उड़ी बया।।

पोती हुई विदेश में, वीजा हुआ समाप्त।
बाबा की घर वापसी, करे पुत्र दरयाफ्त।
कहीं कुछ रह तो नहीं गया।
पिता पर आई नहीं दया।।

चिता पिता की जल गयी, पुत्र मुड़ाया बाल।
लौट रहे जब घाट से, करता दोस्त सवाल।।
छोड़ कर लज्जा शर्म हया।
कहीं कुछ रह तो नहीं गया।।

Sunday, 30 July 2017

कहो ब्याह का हेतु क्या, दूल्हे से हो प्रश्न-


काया को देगी जला, देगी मति को मार।
क्रोध दबा के मत रखो, यह तो है अंगार।
यह तो है अंगार, क्रोध यदि बाहर आये।
आ जाये सैलाब, और सुख शान्ति बहाये।
कभी किसी पर क्रोध, अगर रविकर को आया।
सिर पर पानी डाल, बदन पूरा महकाया।।


फेरे पूरे हो गये, खत्म हुआ जब जश्न।
कहो ब्याह का हेतु क्या, दूल्हे से हो प्रश्न।
दूल्हे से हो प्रश्न, किया है मस्ती खातिर।
उत्तर सुनकर बोल पड़ी फिर दुल्हन शातिर।
चढ़ जाये जब ढेर, उतारे कौन सवेरे।
इसीलिए तो आज, लगाये मैनै फेरे।।


एक दोहा
डॉक्टर
सख्त जरूरत है तुम्हे, करो आज आराम।
लो गोली देना खिला, बीबी को इस शाम।।


Sunday, 9 July 2017

वरना सॉरी बोल, तुम्हीं पर डालूँ माला


माला महकौवा मँगा, रखे चिकित्सक नेक |
उत्सुक रोगी पूछता, कारण टेबुल टेक | 
कारण टेबुल टेक, केस पहला है मेरा |
लेकर प्रभु का नाम, वक्ष चीरूंगा तेरा |
पहनूँगा मैं स्वयं, ठीक यदि दिल कर डाला |
वरना सॉरी बोल, तुम्हीं पर डालूँ माला ||

Wednesday, 5 July 2017

कविगोष्ठी-3

रस्सी जैसी जिंदगी, तने तने हालात |
एक सिरे पे ख्वाहिशें, दूजे पे औकात |

है पहाड़ सी जिन्दगी, चोटी पर अरमान।
रविकर झुक के यदि चढ़ो, हो चढ़ना आसान।।

चूड़ी जैसी जिंदगी, होती जाये तंग।
काम-क्रोध-मद-लोभ से, हुई आज बदरंग।।

फूँक मारके दर्द का, मैया करे इलाज।
वह तो बच्चों के लिए, वैद्यों की सरताज।


रोटी सा बेला बदन, अलबेला उत्साह |
माता हर बेला सिके, रही देह को दाह ||


किया बुढ़ापे के लिए, जो लाठी तैयार।
मौका पाते ही गयी, वो तो सागर पार।


जब गठिया पीड़ित पिता, जाते औषधि हेतु।
बेटा डॉगी संग तब, टहले गाँधी सेतु।।


करो प्रार्थना या हँसो, दोनो क्रिया समान।
हँसा सको यदि अन्य को, देंगे प्रभु वरदान।।

कशिश तमन्ना में रहे, कोशिश कर भरपूर।
लक्ष्य मिले अथवा नही, अनुभव मिले जरूर।।

करे नहीं गलती कभी, बड़ा तजुर्बेकार।
किन्तु तजुर्बे के लिए, की गलतियां हजार।।

गिरे स्वास्थ्य दौलत गुमे, विद्या भूले भक्त।
मिले वक्त पर ये पुन:, मिले न खोया वक्त।।

सुख दुख निन्दा अन्न यदि, रविकर लिया पचाय।
पाप निराशा शत्रुता, चर्बी से बच जाय।।

चुरा सका कब नर हुनर, शहद चुराया ढेर।
मधुमक्खी निश्चिंत है, छत्ता नया उकेर।।

हर मकान में बस रहे, अब तो घर दो चार।
पके कान दीवार के, सुन सुन के तकरार।।

कविगोष्ठी-2

चुभे कील बन शख्स जो, रविकर उसे उखाड़।
मार हथौड़ा ठोक दे, अपना मौका ताड़।।

अधिक आत्मविश्वास में, इस धरती के मूढ़ |
विज्ञ दिखे शंकाग्रसित, यही समस्या गूढ़ ||

रविकर यदि छोटा दिखे, नहीं दूर से घूर।
फिर भी यदि छोटा दिखे, रख दे दूर गरूर।।

अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ।
नहीं ठोक पाया कभी, वह तो अपनी पीठ।।

धर्म-कर्म पर जब चढ़े, अर्थ-काम का जिन्न |
मंदिर मस्जिद में खुलें, नए प्रकल्प विभिन्न ||

भाषा वाणी व्याकरण, कलमदान बेचैन।
दिल से दिल की कह रहे, जब से प्यासे नैन।।

वक्त कभी देते नहीं, रहे भेजते द्रव्य |
घड़ी गिफ्ट में भेज के, करें पूर्ण कर्तव्य ||

जब से झोंकी आँख में, रविकर तुमने धूल।

अच्छे तुम लगने लगे, हर इक अदा कुबूल।।






कविगोष्ठी-1

चाय नही पानी नही, पीता अफसर आज।
किन्तु चाय-पानी बिना, करे न कोई काज।।

दिनभर पत्थर तोड़ के, करे नशा मजदूर।
रविकर कुर्सी तोड़ता, दिखा नशे में चूर।।

बेमौसम ओले पड़े, चक्रवात तूफान।

धनी पकौड़ै खा रहे, खाये जहर किसान।।

होती पाँचो उँगलियाँ, कभी न एक समान।
मिलकर खाती हैं मगर, रिश्वत-धन पकवान ।।

भेड़-चाल जनता चले, खले मुफ्त की मार।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उनका ऊन उतार।।

धनी पकड़ ले बिस्तरा, लगे घूरने गिद्ध।
लें वकील को वे बुला, लेकिन वैद्य निषिद्ध।।

गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर।
घर घर मरहम तो नही, मिलता नमक जरूर।।

छलके अपनापन जहाँ, रविकर रहो सचेत।

छल के मौके भी वहीं, घातक घाव समेत।।

वैसे तो टेढ़े चलें, कलम शराबी सर्प।
पर घर में सीधे घुसें, छोड़ नशा विष दर्प।।

रविकर रोने के लिए, मिले न कंधा एक।
चार चार कंधे मिले, बिलखें आज अनेक।।

नहीं हड्डियां जीभ में, किन्तु शक्ति भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियाँ, सुन रविकर मगरूर ||

आँख-तराजू तौल दे, भार बिना पासंग।

हल्कापन इन्सान का, देख देख हो दंग।।

Monday, 3 July 2017

छोड़ो पापिस्तान-

हंस हंसिनी से कहे, छोड़ो पापिस्तान।
भरे पड़े उल्लू यहाँ, जल्दी भरो उड़ान।
जल्दी भरो उड़ान, रोकता उल्लू आ के।
मेरी पत्नी छोड़, कहाँ ले चला उड़ा के।
काजी करता न्याय, हारता हंस संगिनी।
हो उल्लू की मौज, पीट ले माथ हंसिनी ।

दोहा
जहाँ पंच मुँह देखकर, करते रविकर न्याय।
रहे वहाँ वीरानगी, सज्जन मुँह की खाय।।

Saturday, 1 July 2017

बाँट एक मुस्कान, मिले तब शान्ति आत्मिक-


 सात्विक-जिद से आसमाँ, झुक जाते भगवान् ।
पीर पराई बाँट के, धन्य होय इंसान ।
धन्य होय इंसान, मिलें दुर्गम पथ अक्सर ।
 हों पूरे अरमान, कोशिशें कर ले बेहतर ।
बाँट एक मुस्कान, मिले तब शान्ति आत्मिक ।
रविकर धन्य विचार, यही तो शुद्ध सात्विक ।।

बढ़िया घटिया पर बहस, बढ़िया जाए हार |
घटिया पहने हार को, छाती रहा उभार |
छाती रहा उभार, दूर की लाया कौड़ी  |
करे सटीक प्रहार, दलीले भौड़ी भौड़ी |
तर्कशास्त्र की जीत, हारता दिखे अगड़िया  |
घटिया घटिया रहे, तर्क से हारे बढ़िया ||

Wednesday, 28 June 2017

फिर तो मानव माँस, नोचते जिद्दी बच्चे


जिद्दी बच्चे गिद्ध के, मांगे मानव माँस।
मगर सुअर का ही मिला, असफल हुआ प्रयास।
असफल हुआ प्रयास, पड़ा जिद्दी से पाला।
करता बाप उपाय, सुअर मस्जिद में डाला।
होता शुरू फसाद, उड़े रविकर परखच्चे।
फिर तो मानव माँस, नोचते जिद्दी बच्चे।।

Sunday, 14 May 2017

खाये खैनी माँस, पिये रविकर भी मदिरा-


मदिरा खैनी माँस तज, बढ़े उम्र दस साल।

जुड़े जवानी में नही, अपितु बुढ़ापा-काल। 
अपितु बुढ़ापा काल, ख्वाहिशें खों खों खोवे।
होवे धीमी चाल, जीभ का स्वाद बिलोवे।
इसीलिए बिन्दास, जवानी जिए सिरफिरा।
खाये खैनी माँस, पिये रविकर भी मदिरा ।।

विषधर डसना छोड़ता, पड़ता साधु प्रभाव।
दुर्जन पत्थर मार के, किन्तु लगाते घाव।
किन्तु लगाते घाव, हुआ जब जीना दूभर।
करे सर्प फरियाद, साधु फिर गया सिखाकर।
कह रविकर समझाय, मारते जो भी पत्थर।
उन्हे डसो मत आप, किन्तु फुफ्कारो विषधर।।

Sunday, 30 April 2017

सिर्फ बेटियाँ ही नहीं, जाँय माइका छोड़-


सिर्फ बेटियाँ ही नहीं, जाँय माइका छोड़।
गलाकाट प्रतियोगिता, बेटों में भी होड़।
बेटों में भी होड़, पड़ा है खाली कमरा ।
रैकट बैट गिटार, अजब सन्नाटा पसरा
जींस शूज़ टी-शर्ट्स, किताबें कलम टोपियाँ।
कहे आजकल कौन, रुलाती सिर्फ बेटियाँ।।

Sunday, 26 February 2017

भली करेंगे राम, भाग्य की चाभी थामे-


ताले की दो कुंजिका, कर्म भाग्य दो नाम।
कर्म कुंजिका तू लगा, भली करेंगे राम।
भली करेंगे राम, भाग्य की चाभी थामे।
निश्चय ही हो जाय, सफलता तेरे नामे।
तू कर सतत प्रयास, कहाँ प्रभु रुकने वाले।
भाग्य कुंजिका डाल, कभी भी खोलें ताले।।

Saturday, 18 February 2017

हास्य-व्यंग्य सुंदर विधा, रचे प्रभावी छंद


इंसानी छलछंद को, करते अक्सर मंद।
हास्य-व्यंग्य सुंदर विधा, रचे प्रभावी छंद।
रचे प्रभावी छंद, खोट पर चोट करे है।
प्रवचन कीर्तन सूक्ति, भजन संदेश भरें हैं।
सुने-गुने धर-ध्यान, नहीं है रविकर सानी।
किन्तु दृष्टिगत भेद, दिखे फितरत इंसानी।।

Sunday, 12 February 2017

तितली भ्रमर समेत, भरेंगे रंग फरिश्ते-


रिश्ते को तितली समझ, ले चुटकी में थाम।
पकड़ोगे यदि जोर से, भुगतोगे अंजाम।
भुगतोगे अंजाम, पंख दोनो टूटेंगे ।
दो थोड़ी सी ढील, रंग मोहक छूटेंगे।
भर रिश्ते में रंग, चुकाओ रविकर किश्तें।
तितली भ्रमर समेत, भरेंगे रंग फरिश्ते।

Wednesday, 8 February 2017

रविकर की कुण्डलियाँ

सामाजिक 

मुखड़े पे मुखड़े चढ़े, चलें मुखौटे दाँव |
शहर जीतते ही रहे, रहे हारते गाँव |
रहे हारते गाँव, पते की बात बताता।
गया लापता गंज, किन्तु वह पता न पाता।
हुआ पलायन तेज, पकड़िया बरगद उखड़े |
खर-दूषण विस्तार, दुशासन बदले मुखड़े ||


जौ जौ आगर विश्व में, कान काटते लोग।
गलाकाट प्रतियोगिता, है मुश्किल संयोग।
है मुश्किल संयोग, नाक की चिंता छोड़ो।
रखो ताक पर नाक, रखे जब लोग करोड़ो।
कौन सकेगा काट, करेगा कुत्ता भौ भौ।
चलो चाल मदमस्त, बढ़ो नित आगे जौ जौ।।



कुदरत को कुतरे मनुज, दनुज मनुज को खाय।
पोंगा पंडित मौलवी, रहे खलीफा छाय।
रहे खलीफा छाय, किताबी ज्ञान बघारे।
कत्लो गारद लूट, रोज मानवता हारे।
कह रविकर कविराय, बदलनी होगी फितरत।
नहीं करेगी माफ, अन्यथा सहमी-कुदरत।।


देना हठ दरबान को, अहंकार कर पार्क |
छोड़ व्यस्तता कार में, फुरसत पे टिक-मार्क |
फुरसत पर टिक-मार्क, उलझने छोड़ो नीचे |
लिफ्ट करो उत्साह, भरोसा रिश्ते सींचे |
करो गैलरी पार, साँस लंबी भर लेना |
प्रिया खौलती द्वार, प्यार से झप्पी देना ||


भूखा चीता मार मृग, लेता भूख मिटाय।
मृग के प्रति संवेदना, जग में कहां दिखाय।
जग में कहां दिखाय, खाय के डकरे चीता।
चीता करे शिकार, पढ़े मृग केवल गीता
हुई पढ़ाई व्यर्थ, घास का जंगल सूखा।
मरते मृग बेमौत, मारता चीता भूखा।।


बानी सुनना देखना, खुश्बू स्वाद समेत।
पाँचो पांडव बच गये, सौ सौ कौरव खेत।
सौ सौ कौरव खेत, पाप दोषों की छाया।
भीष्म द्रोण नि:शेष, अन्न पापी का खाया ।
लसा लालसा कर्ण, मरा दानी वरदानी।
अन्तर्मन श्री कृष्ण, बोलती रविकर बानी।।


सद्कर्मी रचता रहे, हितकारी साहित्य |
मानवता को दे जगा, करे श्रेष्ठतम कृत्य |
करे श्रेष्ठतम कृत्य, धर्म जब हो बेचारा |
होय भोग का भृत्य, दिखे जब दिन में तारा |
होंय सफल तब विज्ञ, सुधारें दुष्ट अधर्मी |
भारत बने महान, बने रविकर सद्कर्मी ||

अच्छाई का फायदा, ज्यादा लिया उठाय।
मूर्ख बनाने लग पडे, फिर क्या बचा उपाय।
फिर क्या बचा उपाय, बुरा बन जाय आदमी।
बने भावना शून्य, मतलबी कट्टर वहमी।
कह रविकर चालाक, समझ उनकीअधमाई।
रहता उनसे दूर, दूर रखता अच्छाई।।

कंधे पर होकर खड़ा, आनन्दित है पूत।
बड़ा बाप से मैं हुआ, करता पेश सुबूत।
करता पेश सुबूत, बाप बच्चे से कहता।
और बनो मजबूत, पैर तो अभी बहकता।
तुझको सब कुछ सौंप, लगाऊंगा धंधे पर।
बड़ा होय तब पूत , चढ़ूगा जब कंधे पर।।

आध्यात्मिक / सुभाषित 

तक तक कर पथरा गईं, आँखे प्रभु जी आज |
कब से रहा पुकारता, बैठे कहाँ विराज |
बैठे कहाँ विराज, हृदय से सदा बुलाया ।
नाम कृपा निधि झूठ, कृपा अब तक नहिं पाया |

सुनिए यह चित्कार, बुलाये रविकर पातक |
मिटा अन्यथा याद, याद प्रभु तेरी घातक ॥

बना क्रोध भी पुण्य जब, झपटा गिद्ध जटायु। 
सहनशीलता भीष्म की, कर दे दूषित वायु।
कर दे दूषित वायु, दुशासन नंगा नाचा।
शर-शैया पर पाप, मारता रहा तमाचा।
पाया गोद जटायु, बना लेते प्रभु अपना।
होता देख अधर्म, रहे चुप रविकर अब ना।।

भूलो सब, कह बोलते, पैसा समय भविष्य।
क्रमश: अर्जन अनुसरण, करलो उद्यम शिष्य।
करलो उद्यम शिष्य, किन्तु कहती गुरुवाणी।
सुमिरन करो सदैव, समर्पण करके प्राणी।
करो परम पद प्राप्त, उछलकर नभ को छू लो।
मनवांछित फल पाय, मगन मन खुद को भूलो।

जब है उम्र ढलान पर, समय सरकता तेज।
तेज घटा तो क्या हुआ, जो भी बचा सहेज।।
जो भी बचा सहेज, इंतजारी अब छोड़ो।
इंतजाम प्रारम्भ, ईश से नाता जोड़ो।
काम क्रोध मद त्याग, मोक्ष की बारी अब है।
रविकर का वैराग्य, किन्तु हे ईश अजब है।।

शांता भगिनी राम की, भूले तुलसीदास |
त्याग-तपस्या बहन की, भूल चुका इतिहास |
भूल चुका इतिहास, लगे यह रिश्ता नीरस |
माँ समान सम्मान, मिले बहनों को बरबस |
लेकिन रविकर क्षोभ, लगा रिश्तों का ताँता |
किन्तु उपेक्षित दीख, राम की भगिनी शांता ||

कलाकार दोनों बड़े, रचते बुत उत्कृष्ट।
लेकिन प्रभु के बुत बुरे, करते काम निकृष्ट।
करते काम निकृष्ट, परस्पर लड़ें निरन्तर।
शिल्पी मूर्ति बनाय, रखे मंदिर के अंदर।
करते सभी प्रणाम, फहरती उच्च पताका।
रविकर तू भी देख, धरा पर असर कला का।।

भरत मनाने आ रहे, मार्ग कंटकाकीर्ण।
करो शूल को फूल माँ, रघुपति हृदय विदीर्ण।
रघुपति हृदय विदीर्ण, भरत काँटे सह लेगा।
मेरे प्रति अति स्नेह, किन्तु दारुण दुख देगा।
इसी मार्ग से भ्रात, गये काँटों में बिधकर।
परेशान हों भरत, बहाये अश्रु भराभर।

केवट अपने हाथ पर, धुला पैर रखवाय।
धोता दूजा पैर तो, राम चंद्र गिर जांय।
राम चंद्र गिर जांय, देख गति केवट बोले।
पकड़ो मेरा माथ, ताकि यह देह न डोले।
कहें राम जब भक्त, गिरे मैं थामूं झटपट।
आज भक्त ले थाम, धन्य है रविकर केवट।।

आया शिशु तो स्वच्छ थे, दिल दिमाग मन देह ।
काम क्रोध मद की मगर, प्रलयंकारी मेह।
प्रलयंकारी मेह, प्रभावित दिल हो जाता।
करता रक्त विशुद्ध, लालिमा किन्तु गँवाता।
दिल काला हो जाय, द्वेष ने सतत् जलाया।
होते बाल सफेद, धुआँ जो उड़कर आया।।

छींका पर घंटी बँधी, करें कृष्ण मनुहार।
मौन साधकर घंटिका, करती फिर उपकार।
करती फिर उपकार, गोप-गण माखन खाते।
किन्तु श्याम ज्यों ग्रास, होंठ से दिखे लगाते।
बजी आदतन तेज, खींचती ध्यान सभी का।
लगा रहे प्रभु भोग, देख लो बोला छींका।।

भावुकता में मत बहो, रविकर रहो सतर्क।
दोनों हों यदि संतुलित, पड़े नहीं तब फर्क।
पड़े नहीं तब फर्क, संतुलन करना सीखो।
कर योगासन ध्यान, संतुलित करते दीखो।
पता नहीं कब लोग, मार के भागें चाबुक।
रहना सदा सतर्क, नहीं होना अति भावुक।।

दौड़ाये हर कार को, कुत्ता बारम्बार।
लक्ष्य सुनिश्चित है मगर, पल्ले पड़ती हार।
पल्ले पड़ती हार, पकड़कर क्या कर लेगा।
मानव यूँ ही दौड़, अन्ततः पाता ठेंगा।
रविकर तू मत दौड़, महामाया भरमाये।
लोभ मोह मद द्वेष, रोज कुत्ता दौड़ाये।।

मन से पढ़ो किताब तो, पावन कर दे देह ।
कानों में मिश्री घुले, प्राणिजगत से नेह ।
प्राणिजगत से नेह, निभाती रिश्ता हरदम ।
लेकर जाओ गेह, मित्र ये रहबर अनुपम ।
मानस मोती पाय, अघाए रविकर सज्जन।
साबुन तेल बगैर, शुद्ध कर देती तन-मन।



हास्य 

विनती सम मानव हँसी, प्रभु करते स्वीकार।
हँसा सके यदि अन्य को, कर दे बेड़ापार।
कर दे बेड़ापार, कहें प्रभु हँसो हँसाओ।
रहे बुढ़ापा दूर, निरोगी काया पाओ।
हँसी बढ़ाये उम्र, बढ़े स्वासों की गिनती।
रविकर निर्मल हास्य, प्रार्थना पूजा विनती।।

रविकर यदि राशन दिया, दे वह भूख मिटाय।
यदि मकान देते बना, घर बनाय वह भाय।
घर बनाय वह भाय, भाय वह चौबिस घंटा।
किन्तु करो यदि रार, करेगी वह भी टंटा।
लल्लो चप्पो ढेर, करे हैं मर्द अधिकतर।
हे बच्चों की माय, दंडवत करता रविकर।

भारी भरकम बुलट पे, गर्ल फ्रेंड बैठाय।
किया लांग-ड्राइव मगर, भारी शोर सताय।
भारी शोर सताय, बेच एक्टिवा ख़रीदा।
पत्नी बनकर प्रिया, खोल दी लेकिन दीदा।
दिया एक्टिवा बेच, उतरती प्यार खुमारी।
लाया पुनः खरीद, बुलट उससे भी भारी।

लेकर बैठे विष्णु शिव, क्रमश: चक्र त्रिशूल।
धनुष धारते राम जी, जो पति के अनूकूल ।
जो पति के अनुकूल, पत्नियों संग विराजे।
श्याम सलोने कृष्ण, हाथ क्यों बंशी साजे।
पत्नी करती प्रश्न, कहे डर डरकर रविकर।
प्रिया संग हैं कृष्ण, चैन की बंशी लेकर।।

अभ्यागत गतिमान यदि, दुर्गति से बच जाय।
दुख झेले वह अन्यथा, पिये अश्रु गम खाय।
पिये अश्रु गम खाय, अतिथि देवो भव माना।
लेकिन दो दिन बाद, मारती दुनिया ताना।
कह रविकर कविराय, करा लो बढ़िया स्वागत।
शीघ्र ठिकाना छोड़, बढ़ो आगे अभ्यागत।।

सोफा पे पहुना पड़ा, लंठ लवासी ढीठ ।
अतिथि-यज्ञ से दग्ध मन, फिर भी बोलूं मीठ ।
फिर भी बोलूं मीठ, पीठ मैं नहीं दिखाऊं ।
रोटी शरबत माछ, रोज पकवान खिलाऊं ।
रगड़ा चन्दन मुफ्त, चुने खुद से ही तोफा ।
हिला गया कुल-बजट, तोड़ के मेरा सोफा ।

बेलन ताने देख के, तनी-मनी घबराय |
लेकिन ताने मार के, जियरा रही जलाय |
जियरा रही जलाय, खरी-खोटी खर-मंडल |
रविकर मौका पाय, दिखाती अबला छल बल |
मनमाना व्यवहार, नहीं ब्रह्मा भी जाने |
जब ताने में धार, व्यर्थ क्यों बेलन ताने ||

बोदा लड़का घूमता, छुटका बड़ा सयान।
गाली खाए नित्य यह, वह बनता विद्वान ।
वह बनता विद्वान, विलायत गया कमाने।
व्याही गोरी मेम, और भी कई बहाने |
अब तो रविकर वृद्ध, करे नित सेवा बड़का ।
दे देना प्रभु एक, उसे भी बोदा लड़का ||

तुम गुरूर में रह रही, सजा सजाया फ्लैट।
रहता मैं औकात में, बिछा फर्श पर मैट। 
बिछा फर्श पर मैट, बसा था तेरे दिल में।
रविकर आठों याम, जमाया रँग महफिल में।
रहो होश में बोल, निकाली तुम सुरूर में।
इधर होश औकात, उधर हो तुम गुरूर में।


व्यंग्य 
बापू की बकरी बंधी, रस्सी वही प्रसिद्ध।
राजगुरू सुखदेव का, फंदा नोचें गिद्ध।
फन्दा नोचें गिद्ध, चन्द्रशेखर की गोली।
स्वार्थ हुवे सब सिद्ध, सफल चाचा की टोली।
गाँधी नाम भुनाय, नहीं सत्ता से चूकी।
क्रान्तिवीर निष्प्राण, बोल मन जय बापू की।।

आये गाँधी नर्क से, दो टुकड़े करवाय।
हाथ छोड़ के, "गोड़ से", चरखा रहे चलाय।
चरखा रहे चलाय, सामने तीनों बंदर।
रख के मुँह पर हाथ, हँसे इक मस्त-कलंदर।
आँख दूसरा मूँद, अदालत रोज चलाये।
कान बन्द कर अन्य, यहाँ सत्ता में आये।

कम्बल देंगे भेड़ को, खरगोशों को हैट।
हर घोड़े को नाल दूं, बिल्लों को दूँ रैट।
बिल्लों को दूँ रैट, इलेक्शन बस जितवाओ।
बहुमत की सरकार, अरे रविकर बनवाओ।
कहता रँगा सियार, प्रान्त यह होगा अव्वल।
पियें शुद्ध घी रोज, ओढ़कर भेड़ें कम्बल।।

लोकतंत्र की शक्ल में, दिखने लगी चुड़ैल |
हुश्न परी सा है मगर, मन-मिजाज में मैल |
मन-मिजाज में मैल, मौज मतदाता मारे |
जाति-धर्म को वोट, बड़े सिद्धांत बघारे |
फिर जन गण दे रोय, जीत हो तंत्र-मंत्र की।
वोट बैंक ले खाय, मलाई लोकतंत्र की ।।

बढ़ती भीड़ मशान में, हस्पताल में मर्ज।
दारुण दुर्घटना घटे, मनुज चुकाये कर्ज।
मनुज चुकाये कर्ज, भ्रूण हत्या नित होवे।
दाहिज करता क़त्ल, गली में कुत्ता रोवे ।
धूर्त बजाते गाल, चुड़ैलें सिर पर चढ़तीं |
दंगा नंगा नाच, दूरियां दिल में बढ़तीं ||

साहित्यिक पुरस्कार
खले चाँदनी चोर को, व्यभिचारी को भीड़।
दूजे के सम्मान से, कवि को ईर्ष्या ईड़।
कवि को ईर्ष्या ईड़, बने अपने मुंह मिट्ठू।
कवि सुवरन बिसराय, कहे सरकारी पिट्ठू।
रविकर तू भी सीख, किन्तु पहले तो छप ले।
मांगे मिले न भीख, जरा चमचई परख ले।।

रोमन में हिन्दी लिखी, रो मन बुक्का फाड़।
देवनागरी स्वयं की, रही दुर्दशा ताड़।
रही दुर्दशा ताड़, दिखे मात्रा की गड़बड़।
पाश्चात्य की आड़, करे अब गिटपिट बड़ बड़।
सीता को बनवास, लगाये लांछन धोबन।
सूर्पनखा की जीत, लिखें खर दूषण रोमन।।

जितना भूखा जानवर, उतना घातक क्रूर।
सिंहारे से दूर अति, दंतारे से दूर।
दंतारे से दूर, किन्तु मनई से बचना।
ज्यों ज्यों भरता पेट, होय यह काली रसना।
खतरनाक हो जाय, कहे क्या रविकर कितना।
हिंसक आदमखोर, जानवर भूखा जितना।।

छपने का अखबार में, जिन्हें रहा था चाव।
समय बीतने पर बिके, वे रद्दी के भाव।।
वे रद्दी के भाव, बनाये ठोंगा कोई।
जो रचि राखा राम, वही रविकर गति होई।
मिर्ची नमक लपेट, पेट पूजा कर फेका।
कोई दिया जलाय, नाम मत ले छपने का।।

नारि-सशक्तिकरण 

बिटिया पापड़ बेल के, करे कढ़ाई साफ।
बेटा गुलछर्रे उड़ा, सोये ओढ़ लिहाफ।
सोये ओढ़ लिहाफ, दुलारा बेटा माँ का।
सर्विस वाली देख, भिड़ाता रविकर टाका।
करवाती यह काम, खड़ी कर देती खटिया।
नारि नारि में फर्क, सास की शातिर बिटिया ।।

पैरों पर होना खड़ी, सीखो सखी जरुर ।
आये जब आपद-विपद, होना मत मजबूर ।
होना मत मजबूर, सिसकियाँ नहीं सहारा ।
कन्धा क्यूँकर खोज, सँभालो जीवन-धारा ।
समय हुआ विपरीत, भरोसा क्यूँ गैरों पर |
लिखो भाग्य लो जीत, खड़ी हो खुद पैरों पर ।।

बना चपाती रच रही, गृहणी छंद महान।
बैठी सब्जी काटती, बड़े-बड़ों के कान।
बड़े बड़ों के कान, नई चीजें नित दीखें।
तरह तरह के छौंक, लगा के कविता सीखें।
उच्चकोटि के छंद, आज मां बहन सुनाती।
धन्य फेसबुक धन्य, पेट भर बना चपाती।

बेटी ठिठकी द्वार पर, बैठक में रुक जाय।
लगा पराई हो गयी, पिये चाय सकुचाय। 
पिये चाय सकुचाय, आज वापस जायेगी।
रविकर बैठा पूछ, दुबारा कब आयेगी।
देखी पति की ओर , दुशाला पुन: लपेटी।
लगा पराई आज, हुई है अपनी बेटी।।
दोहा
बेटी हो जाती विदा, लेकिन सतत् निहार।
नही पराई हूँ कहे, बारम्बार पुकार।।



विषाद 

सारे ही दुख-दर्द के, जड़ में तेरी याद |
मर-मर हम मरहम मलें, फिर भी बहे मवाद।
फिर भी बहे मवाद, घाव में अक्श तुम्हारा ।
उस झुरमुट से किंतु, देख तू टूटा तारा ।
पहला-पहला प्यार, प्रिया अनवरत पुकारे ।
तू भी कर ले याद, मिटें रविकर दुख सारे ।।

कथा-कविता 
१)
आया जो तूफान तो, रविकर नौका डूब।
निर्जन टापू में फँसा, त्राहिमाम् कर ऊब।
त्राहिमाम् कर ऊब, आज ही कुटी बनाया।
ऊपरवाला किन्तु, आग उस पर बरसाया।
ऊँची लपटें ताक, व्यक्ति प्रभु पर गुस्साया।
किन्तु उन्ही को देख, वहाँ राहत दल आया।।
दोहा
ईश्वर पर विश्वास रख, विचलित मत हो मीत।
छुपी हुई संघर्ष में, रविकर तेरी जीत।।
२)
आया भिक्षा माँगकर, धूनी रहा रमाय।
तब अपंग लोमड़ वहाँ, साधु ध्यान भटकाय।
साधु ध्यान भटकाय, शाम होने को आई।
तभी गर्जना पास, सिंह की पड़ी सुनाई।
चढ़ा वृक्ष पर साधु, उथर लोमड़ हरसाया।
बोटी लेता खाय, सिंह जो लेकर आया।
लीला प्रभु की देखकर, भिक्षाटन दे छोड़।
वह समाधि लेता लगा, हो लोमड़ से होड़।
हो लोमड़ से होड़, सिंह तो रोज खिलाये।
लेकिन मरणासन्न, साधु टकटकी लगाये।
पूछा राही एक, स्वास्थ्य जब देखा ढीला।
साधु रहा बतलाय, सिंह लोमड़ की लीला।।
दोहा
गलत समझते साधु तुम, ईश्वर का संदेश।
हरो सिंह बनकर सदा, निर्बल के तुम क्लेश।।

3)
झाड़ी में हिरणी घुसी, प्रसव काल नजदीक।
इधर शिकारी ताड़ता, उधर शेर दे छींक।
उधर शेर दे छींक, गरजते बादल छाये।
जंगल जले सुदूर, देख हिरणी घबराये।
चूक जाय बंदूक, शेर को मौत पछाड़ी। 
शुरू हुई बरसात, सुने किलकारी झाड़ी।।