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Friday, 14 September 2018

काव्य पाठ

काव्य पाठ
नमन हे राष्ट्रकवि दिनकर जयतु-जय रामधारी की |
हमेशा सिंह से गरजे, सदा उसकी सवारी की |
रथी बनकर बिखेरी रश्मि दिनकर कर्ण-अर्जुन की
रचे सौ ग्रंथ अलबेले उकेरी खूब बारीकी ||

विदेशी आक्रमणकारी बड़े निष्ठुर बड़े बर्बर |
पराजित शत्रु की जोरू-जमीं-जर छीन लें अकसर |
कराओ सिर कलम अपना, पढ़ो तुम अन्यथा कलमा
जिन्हें थी जिंदगी प्यारी, बदल पुरखे जिए रविकर ||

उमर मत पूछ औरत की, बुरा वह मान जायेगी।
मरद की आय मत पूछो, उसे ना बात भायेगी।
फिदाइन यदि मरे मारे, मियाँ तुम मौन रह जाना।
धरम यदि पूछ बैठे तो, सियासत जान खायेगी।।

मदर सा पाठ लाइफ का पढ़ाता है सिखाता है।
खुदा का नेक बन्दा बन खुशी के गीत गाता है।
रहे वह शान्ति से मिलजुल, करे ईमान की बातें
मगर फिर कौन हूरों का, उसे सपना दिखाता है।।

बड़ी तकलीफ़ से श्रम से, रुपैया हम कमाते हैं ।
उसी धन की हिफाज़त हित बड़ी जहमत उठाते हैं।
कमाई खर्चने में भी, निकलती जान जब रविकर
कहो फिर जिंदगी को क्यों कमाने में खपाते हैं।।

पतन होता रहा फिर भी बहुत पैसा कमाया है ।
किया नित धर्म की निन्दा, तभी लाखों जुटाया है।
सहा अपमान धन खातिर, अहित करता हजारों का
पसारे हाथ जाता वो नहीं सुख-शान्ति पाया है।।

कामादि का बैताल जब शैतान से मिलकर गढ़ा।
तो कर्म के कंधे झुका, वो धर्म के सिर पर चढ़ा।
मुल्ला पुजारी पादरी परियोजना लाकर कई
पूजाघरों से विश्व को वे पाठ फिर देते पढा।

सियासत खेल करती है सिया वनवास जाती है।
परीक्षा नारि ही देती पुरुष को शर्म आती है।
अगर है सुपनखा कोई उसे नकटा बना देते।
सिया एवं सती को फिर सियासत में फँसा देते।।

नहीं पीता कभी पानी, रियाया को पिलाता है।
नकारा चाय भी अफसर, नकारा जान खाता है।
नहीं वह चाय का प्यासा, कभी पानी नहीं मांगे
मगर बिन चाय-पानी के, नहीं फाइल बढ़ाता है।।

चुनावी हो अगर मौसम बड़े वादे किये जाते।
कई पूरे किये जाते कई बिसरा दिए जाते।
किया था भेड़ से वादा मिलेगा मुफ्त में कम्बल
कतर के ऊन भेड़ो का अभी नेता लिये जाते।।
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तुम तो मेरी शक्ति प्रिय, सुनती नारि दबंग।
कमजोरी है कौन फिर, कहकर छेड़ी जंग।।

माथे पर बिन्दी सजा, रही नदी में तैर।
सारे दुष्कर कार्य कर, जमा रही वह पैर।|

मार्ग बदलने के लिए, यदि लड़की मजबूर |
कुत्ता हो या आदमी, मारो उसे जरूर ||

रस्सी जैसी जिंदगी, तने तने हालात |
एक सिरे पे ख्वाहिशें, दूजे पे औकात ||

दल के दलदल में फँसी, मुफ्तखोर जब भेड़ ।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उसका ऊन उधेड़ ।।

पैर न ढो सकते बदन, किन्तु न खुद को कोस ।
पैदल तो जाना नहीं, तत्पर पास-पड़ोस ।।

देह जलेगी शर्तिया, लेकर आधा पेड़।
एक पेड़ तो दे लगा, दे आंदोलन छेड़।।
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शहीदों से करे सत्ता हमेशा जब दगाबाजी।
भगत-अशफाक-विस्मिल यूँ कराते दर्ज नाराजी।

दिया सिर व्यर्थ फंदे में, फँसाई व्यर्थ ही गर्दन ।
जवानी व्यर्थ क्यों कर दी, लुटे जब रोज जन गण मन ।
मिली क्या खाक आजादी, मिले दो देश दुनिया को।
कभी कोई कहाँ बाँटा, मगर तुम बाँटते माँ को।

इधर नेहरू उधर जिन्ना, मगर हम हारते बाजी।
भगत अशफाक विस्मिल यूँ कराते दर्ज नाराजी।।

नहीं जन-गण सुरक्षित है गरीबी है अशिक्षा है।
करे क्यों बाल मजदूरी, मँगाये कौन भिक्षा है।
विधानों की उपेक्षा है, उपेक्षा धर्म की होती।
हुए क्यों वृद्ध अपमानित, अभी भी नारि क्यों रोती।
अमीरी मौज करती है, यहाँ सत्ता वहाँ काजी।
भगत अशफाक विस्मिल यूँ कराते दर्ज नाराजी ।2।।

कृषक की खुदकुशी देखी, नशे में धुत कई पीढ़ी।
विरासत राजनैतिक फिर लगाये पुत्र हित सीढ़ी।
अजब फिरकापरस्ती है, बढ़े बलवे बढ़े दंगे।
बढ़ी है भीड़ हिंसा.भी, हमामों मे सभी नंगे।
घुटाले रेप मर्डर की छपे हर दिन खबर ताजी।
भगत अशफाक विस्मिल यूँ कराते दर्ज नाराजी।3।

शहीदों की शिकायत पर, हँसी-ठठ्ठा करे सत्ता।
बुलाया सत्र संसद का, दिवाने-खास अलबत्ता।
भरे छल-दम्भ-मक्कारी, हुई चर्चा बड़ी लम्बी-
मगर निष्कर्ष निकले बिन, बढ़ाया चौगुना भत्ता।।
बघारे शान फिर सत्ता, हुई चालू हवाबाजी।
शहीदो से करे सत्ता, हमेशा ही दगाबाजी।। 

Thursday, 14 December 2017

काव्य पाठ २८ जनवरी

सोते सोते भी सतत्, रहो हिलाते पैर।
दफना देंगे अन्यथा, क्या अपने क्या गैर।।

दौड़ लगाती जिन्दगी, सचमुच तू बेजोड़ 
यद्यपि मंजिल मौत है, फिर भी करती होड़  
                                                            
रस्सी जैसी जिंदगी, तने-तने हालात. 
एक सिरे पर ख्वाहिशें, दूजे पे औकात .

है पहाड़ सी जिंदगी, चोटी पर अरमान.
चढ़े व्यक्ति झुककर अगर, हो चढ़ना आसान.

दल के दलदल में फँसी, मुफ्तखोर जब भेड़ ।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उसका ऊन उधेड़ ।।

गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर।
घर घर मरहम तो नही, मिलता नमक जरूर।।

अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ।
नहीं ठोक पाया कभी, खुद से खुद की पीठ।।

बेमौसम ओले पड़े, चक्रवात तूफान।
धनी पकौड़ै खा रहे, खाये जहर किसान।।

चाय नही पानी नही, पीता अफसर आज।
किन्तु चाय-पानी बिना, करे न कोई काज।।

चुरा सका कब नर हुनर, शहद चुराया ढेर।
मधुमक्खी निश्चिंत है, छत्ता नया उकेर।।

अधिक आत्मविश्वास में, इस धरती के मूढ़ |
विज्ञ दिखे शंकाग्रसित, यही समस्या गूढ़ ||

धर्म-कर्म पर जब चढ़े, अर्थ-काम का जिन्न |
मंदिर मस्जिद में खुलें, नए प्रकल्प विभिन्न ||

धनी पकड़ ले बिस्तरा, भाग्य-विधाता क्रूर ।
ले वकील आये सगे, रखा चिकित्सक दूर।।

छलके अपनापन जहाँ, रविकर रहो सचेत।
छल के मौके भी वहीं, घातक घाव समेत।।

होती पाँचो उँगलियाँ, कभी न एक समान।
मिलकर खाती हैं मगर, रिश्वत-धन पकवान ।।

जब से झोंकी आँख में, रविकर तुमने धूल।
अच्छे तुम लगने लगे, हर इक अदा कुबूल।।

भाषा वाणी व्याकरण, कलमदान बेचैन।
दिल से दिल की कह रहे, जब से प्यासे नैन।।

नहीं हड्डियां जीभ में, पर ताकत भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियां, देखो कभी जरूर ||

रुतबा सत्ता ओहदा, गये वक्त की बात।
वक्त मुरौव्वत कब करे, दिखला दे औकात।।

रविकर रोने के लिए, मिले न कंधा एक।
चार चार कंधे मिले, बिलखें आज अनेक।।

सराहना प्रेरित करे, आलोचना सुधार।
निंदक दो दर्जन रखो, किन्तु प्रशंसक चार।

मुक्तक 
मदर सा पाठ लाइफ का पढ़ाता है सिखाता है।
खुदा का नेक बन्दा बन खुशी के गीत गाता है।
रहे वह शान्ति से मिलजुल, करे ईमान की बातें
मगर फिर कौन हूरों का, उसे सपना दिखाता है।।

उमर मत पूछ औरत की, बुरा वह मान जायेगी।
मरद की आय मत पूछो, उसे ना बात भायेगी।
फिदाइन यदि मरे मारे, मियाँ तुम मौन रह जाना।
धरम यदि पूछ बैठे तो, सियासत जान खायेगी।।

कामार्थ का बैताल जब शैतान ने रविकर गढ़ा।
तो कर्म के कंधे झुका, वो धर्म के सिर पर चढ़ा।
मुल्ला पुजारी पादरी परियोजना लाकर कई
पूजाघरों से विश्व को वे पाठ फिर देते पढा।

बड़ी तकलीफ़ से श्रम से, रुपैया हम कमाते हैं ।
उसी धन की हिफाज़त हित बड़ी जहमत उठाते हैं।
कमाई खर्चने में भी, निकलती जान जब रविकर 
कहो फिर जिंदगी को क्यों कमाने में खपाते हैं।।

फिसलकर सर्प ऊपर से गिरा जब तेज आरे पर।
हुआ घायल, समझ दुश्मन, लिया फिर काट झुँझलाकर।
हुआ मुँह खून से लथपथ, जकड़ता शत्रु को ज्यों ही
मरे वह सर्प अज्ञानी,  यही तो हो रहा रविकर  ।।

होता अकेला ही हमेशा आदमी संघर्ष मे ।
जग साथ होता है सफलता जीत में उत्कर्ष में।
दुनिया हँसी थी मित्र, जिस जिस पर यहाँ गत वर्ष तक
इतिहास उस उस ने रचा इस वर्ष भारत वर्ष में।।

पतन होता रहा प्रतिपल, मगर दौलत कमाता वो ।
करे नित धर्म की निन्दा, खजाना लूट लाता वो।
सहे अपमान धन खातिर, बना गद्दार भी लेकिन
पसारे हाथ आया था, पसारे हाथ जाता वो।।

अरबपति पुत्र की माता, बनी कंकाल सड़ गलकर।
रहे रेमंड का मालिक, किराये की कुटी लेकर।
कलेक्टर खुदकुशी करता, कलह जीना करे दूभर।
हितैषी खोज तू, है व्यर्थ रुतबा शक्ति धन रविकर।

मुसीबत की करो पूजा, सिखाकर पाठ जायेगी।
करो मत फिक्र कल की तुम, हँसी रविकर उड़ायेगी।
यहाँ तो मौत आने तक मजे से हंस गाता है ।
वहीं वह मोर नाचा तो, मगर आँसू बहाता है।।

हरिगीतिका 
अलमारियों में पुस्तकें सलवार कुरते छोड़ के।
गुड़िया खिलौने छोड़ के, रोये चुनरियाओढ़ के।
रो के कहारों से कहे रोके रहो डोली यहाँ।
माता पिता भाई बहन को छोड़कर जाये कहाँ।
लख अश्रुपूरित नैन से बारातियों की हड़बड़ी।
लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।

हरदम सुरक्षित वह रही सानिध्य में परिवार के।
घूमी अकेले कब कहीं वह वस्त्र गहने धार के।
क्यूँ छोड़ने आई सखी, निष्ठुर हुआ परिवार क्यों।
अन्जान पथ पर भेजते अब छूटता घर बार क्यों।।
रोती गले मिलती रही, ठहरी नही लेकिन घड़ी।
लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।

आओ कहारों ले चलो अब अजनबी संसार में।
शायद कमी कुछ रह गयी है बेटियों के प्यार में।
तुलसी नमन केला नमन बटवृक्ष अमराई नमन।
दे दो विदा लेना बुला हो शीघ्र रविकर आगमन।।
आगे बढ़ी फिर याद करती जोड़ती इक इक कड़ी।
लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।