Saturday, 4 December 2021

मशहूर कथाएं : काव्यानुवाद


दो बैलों की कथा :मुंशी प्रेमचंद)

(1)
बछिया के ताऊ कहो, कहो गधा या बैल।
हीरा मोती मे मगर, नहीं जरा भी मैल।
नही जरा भी मैल, दोस्ती बैहद पक्की।
मालिक झूरी मस्त,किन्तु साला था झक्की।
रविकर रहा प्रवास,उधर का बड़ा उबाऊ।
दोनो आते भाग, दुखी बछिया के ताऊ।।
(2)
अपनी गर्दन पर अधिक, लेते बोझ उठाय।।
रखें परस्पर ख्याल वे, एक नाँद में खाय।
एक नाँद में खाय, परस्पर चूमा चाटी।
किन्तु दुखी हैं आज, जिन्दगी जाय न काटी।
गया गया था खेप, बहन का मिला समर्थन।
भागे दोनो बैल, छुड़ा के अपनी गर्दन।।
(3)
प्यारी सी वह बालिका, रोटी रोज खिलाय।
खोले आज गिराँव वह, देती इन्हे भगाय।
देती इन्हे भगाय, दुखी हैं हीरा मोती।
धीरे धीरे जाँय, प्यार में आँखें रोती।
रास्ता जाते भूल, भूख से नीयत हारी।
खाय मटर का खेत, छीमियाँ प्यारी प्यारी।।
(4)
हीरा मोती मस्त हैं, खाकर के भरपेट।
लेकिन हो जाती तभी, एक साँढ़ सै भेंट।
एक साँढ़ से भेंट, बोलता भागो मोती ।
पर हीरा भिड़ जाय, लड़ाई जम के होती।
रही एकता जीत, दुष्ट का तन मन चीरा।
मोती मारे सींग, सींग फिर मारे हीरा।।
(5)
चर दूजे के खेत को, कहाँ मिला है चैन।
अब तो काजी हौस में, भोगे दुख दिन रैन।
भोगे दुख दिन रैन, बकरियाँ गधे भरे हैं।
भूखे प्यासे ढोर, प्रतीक्षा मात्र करे हैं।
असहनीय यह कष्ट, चलाता हीरा चक्कर।
दे दीवाल गिराय, भागते साथी सहचर।।
(6)
भागे सारे जानवर, सके न हीरा भाग।
रस्सी जो कटती नहीं, गयी मित्रता जाग ।
गयी मित्रता जाग, पकड़ में दोनो आये।
भूखे प्यासे दोस्त, महज ढाँचा रह जाये।
हुए आज नीलाम, कसाई आया आगे।
अन्त समय नजदीक, करें क्या बैल अभागे।।
(7)
लेकर बैलों को चला, वह दढ़ियल बाजार।
गाँव खेत होने लगे, धीरे धीरे पार।
धीरे धीरे पार, तभी वे दोनो चौके।
उन्हे खेत खलिहान, सामने अपने लौके।
रस्सी लिया तुड़ाय, इशारा करते हँसकर।
देते दौड़ लगाय, जान मुट्ठी में लेकर।।
(8)
आये अपने गाँव जब, तीन मास के बाद ।
स्वागत करते हैं सभी, दे दे रविकर दाद।
दे दे रविकर दाद, खिलाते रोटी चारा।
मिला प्रेम परिवार, दर्द गुम जाता सारा।
चलता दुख सुख चक्र, जिन्दगी चलती जाये।
पर हिम्मत मत हार, कभी यदि विपदा आये।।

 जिहाद : मुंशी प्रेमचंद
कफन पंच-परमेश्वर कायर, दो बैलों की कथा सुहानी।
नशा स्वामिनी ईदगाह माँ, प्रेमचंद की अमर कहानी।
है जिहाद भी कथा आपकी, किन्तु न जाने हिन्दुस्तानी।
आओ मित्रों पढ़ो-पढ़ाओ, बहा आँख से झर-झर पानी।1 ।
विविध पठान कबीले लड़ते, अपने तौर-तरीके मानें।
तलवारों से भेद मिटाना, झगड़े भी निपटाना जानें।
किन्तु शान्तिप्रिय हिन्दु-सिक्ख जन, रहे सदा से राम-भरोसे।
सर्वधर्म सम्भाव परस्पर, कुल-कुटुम्ब सब पाले-पोसे।2।
धर्म-कर्म में भेद नहीं था, युगों-युगों से जिस धरती पर।
वहीं एक मौलाना आकर, फैलाता अपना आडम्बर।
धर्मशून्य-अनपढ़ जिरगों के, रगों-रगों में भर कट्टरता।
लुभावनी वाणी से उनको, उत्तेजित सम्मोहित करता।3|
कुफ्र मिटाओ हूरें पाओ, गरज-गरज कर जब वह कहता।
हर पठान तलवार उठा तब, कभी नहीं आपे में रहता।
हमले होने लगे हिन्दु पर, देवालय की शामत आई।
हत्या शीलहरण करते वे, कन्या जिन्हें कही थी भाई।4|
हिन्दूकुश से एक काफिला, भाग धर्म-रक्षार्थ रहा था।
खूनी धर्मांधों के कारण, मानवता का महल ढहा था।
नई परिस्थिति का अन्दाजा, लगा न पाये हिन्दु-सिक्ख जन।
हाथ-पांव फिर लगे फूलने, किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ मन।5|
जान हथेली पर लेकर फिर, किया भागने की तैयारी।
आसमान से आग बरसती, पग-पग पर था खतरा भारी।
नहीं नसीब वृक्ष की छाया, भूख-प्यास से जान निकलती।
लेकिन जिहादियों के डर से, करें न वे रुकने की गलती।6।
एक कुंए की झलक दिखी तो, शिला-पार्श्व में डेरा डाले।
बाल वृद्ध शिशु महिलाओं की करे सुरक्षा दो मतवाले।
धर्मदास का बदन गठीला, रूपवान बंदूक सँभाले।
खजाचन्द श्रीहीन दिखे पर, बात किसी की कभी न टाले।7|
चौकन्ने होकर वे दोनों, करें ध्यान से पहरेदारी।
आगे की रणनीति बनाते, समय बिताते दो व्यापारी।
तभी काफिले की युवती को, देखा लोटा-डोर उठाये।
उसे रोककर धर्मदास खुद, पास कुएं के झटपट जाये।8।
पानी लेकर लगा लौटने, दृश्य देखकर जी घबराया।
कुछ सवार आ रहे उधर ही, घबराकर वह दौड़ लगाया।
लेकिन वह बंदूक उठाकर, जल्दी-जल्दी दौड़ न पाया।
घेरा डाल सवारों ने फिर, सीने से बंदूक सटाया।9|
सब के सब जाने-पहचाने, फिर भी नहीं रियायत करते।
चलो उड़ा दो सर काफिर का, एक साथ ही कई गरजते।
तभी एक उन सब को रोके, जीने का दे देता अवसर।
मगर शर्त इस्लाम कबूले, वर्ना शीश गिरेगा कटकर |10|
अक्ल न माने जिस विचार को, वाक्य न वह कर पाया पूरा।
कूफ्र-कुफ्र का शोर मचाकर, हर पठान ने उसको घूरा।
भला अक्ल से मजहब का क्या, जोड़ रहा रिश्ता ऐ काफिर।
कर कुबूल इस्लाम अन्यथा, लोटेगा माटी में यह सिर।11।
ठहरो-ठहरो कहे दूसरा, मार डालना बड़ा सरल है।
तेरी जान बख्शने का सुन, अब तो मात्र एक ही हल है।
अन्य तुम्हारे बन्धु मित्रगण, कहाँ छुपे हैं हमें बताओ।
माफ करेंगे हम तुम सबको, यदि इस्लाम कुबूल कराओ।12।
घूंट जहर का पीकर पीड़ित, आँखें नीची कर के बोला।
मैं ईमान खुदा पर लाता, कहकर बदल लिया वह चोला।
अलहमद व लिल्लाह बोलकर , पाँचो उसको गले लगाते।
तभी दूर बंदूक उठाये, खजाचन्द श्यामा दिख जाते।13।
श्यामा कोस रही थी खुद को, दृश्य दूर से देखदेख कर।
खजाचन्द भी वहीं खड़ा था, पर आँखों में अश्रु-अग्नि भर।
गले लगाते धर्मदास को, जैसे ही देखा श्यामा ने ।
समझ गई वह सकल माजरा, समझ गई वह इसके माने।14|
हुई क्षुब्ध तो खजाचन्द से, बन्दूक चलाने को बोली।
पर कर से बंदूक सरकती, खजाचन्द से चली न गोली।
लाओ मुझे बोलकर झपटी, कभी मुझे मत शक्ल दिखाना।
गोली लगी निशाने पर फिर, सुनकर के श्यामा का ताना।15|
गिरता एक पठान वहीं पर, अल्लाहोअकबर के हाँके।
खजाचन्द पर किया नियंत्रण, फिर टोली की ताकत आंके।
चार-चार तलवारें तनती, गला रेतने की तैयारी।
तभी एक उनमें से बोला, खजाचन्द सुन बात हमारी।16|
दगा, कुफ्र इल्ज़ाम खून का, फिर भी तुझको माफ करेंगे।
ला ईमान खुदा रसूल पर, तुझे बराबर इज्जत देंगे।
इधर घृणा से धर्मदास को, ताक रही थी रविकर श्यामा।
उधर खजा के मुखमंडल पर, दिखा तेज पावन अभिरामा।17।
नबी वली पैगंबर की क्या, नहीं किसी की हमें जरूरत।
सदा हमारे दिल में बसती, राम-कृष्ण-शिव की शुभ-मूरत।
खजाचन्द बलिदान हुआ फिर, धर्म-पताका फहरा जाता।
धर्मदास उसकी दौलत पर, नजर गड़ा मन में मुस्काता।।18|
बुझती आँखें खजाचन्द की, अद्भुत चमक बिखेर रही थी।
उधर विधर्मी धर्मदास को, उसकी आत्मा टेर रही थी।
श्यामा से जैसे वह बोला, गया जोर से वह फटकारा।
अलग-अलग अब राह हमारी, तुम्हें मुबारक धर्म तुम्हारा।19।
धर्मदास होकर अवाक फिर, करुणा-कातर स्वर में बोला।
याद करो वे कसमे-वादे, मधु-मिठास वाणी में घोला।
भावी कौन टाल सकता है, मुझे न तुम ठुकराओ ऐसे।
किन्तु न होती टस से मस वह, हाथ छुड़ाई जैसे-तैसे।20|
खजाचन्द से लिपट-लिपटकर, करने लगी विलाप कुमारी।
देख समर्पण प्रेम-भावना, धर्मदास की हिम्मत हारी।
फिर भी कहता साथ चलो तुम, अब दौलत की कमी न होगी।
कर निकाह लो मुझसे श्यामा, इंशाअल्लाह राज करोगी ।21।
धिक्कारी वह धर्मदास को, करके शव की ओर इशारा।
दूंगी खजाचन्द की बनके, बिता याद में जीवन सारा।
हिन्दू होकर हिन्दूकुश से, चाहे मुझको पड़े भागना ।
मुसलमान मैं नहीं बनूंगी, चाहे सागर पड़े लाँघना।22।
तुमने कीमत बड़ी चुकाई, जाओ देव-मूर्तियां तोड़ो।
कलमा पढ़ा हिंदुओं को अब, जाकर नये धर्म से जोड़ो।
कहाँ कौन सी कीमत मैंने, बोलो आकर यहाँ चुकाई।
भला पास में क्या था मेरे, खर्च न की मैंने इक पाई।23|
सत्य-सनातन एक खजाना, श्यामा ने तब याद दिलाया।
पाकर राम-कृष्ण-गुरुओं से, जिसको तुमने आज लुटाया।।
मैंने हरदम खजाचन्द के, कोमल भावों को ठुकराया।
प्रायश्चित करने का अवसर, आज तुम्हारे कारण आया।24|
तड़प उठा दिल हर पठान का, सबने मिलकर चिता सजाई।
खजाचन्द की बेवा बनकर, वहीं किनारे उम्र अलख जगाई।
आस-पास वह धर्मदास फिर, कहीं कभी भी नजर न आया।
कई महीने यूँ ही बीते, दिखी एकदिन मानव छाया।25।
फटे हुए कपड़ो में देखा, जैसे उसने एक भिखारी।
धर्मदास कह चीख उठी वह, असमंजस में अबला नारी।
मुझे माफ कर दो अब तो तुम, नहीं कभी इस्लाम कबूला।
घर वापस आ गया शाम को, रहा सुबह का अब तक भूला।26|
मैं तो धर्मवीर की पत्नी, धर्मदास से अब क्या लेना।
वीर पुरुष हो गया अमर अब, तुझसे क्या लेना या देना।
किया कलंकित हिन्दुधर्म को, हटो सामने से तुम घर के।
धर्मदास आँखों से ओझल, हुआ आँख में पानी भर के।27।
पानी भरने चली कुंआ पर, श्यामा अगले दिवस सवेरे।
एक लाश को गिद्ध नोचते, कुछ कुत्ते भी उसको घेरे।
लगा धड़कने दिल श्यामा का, तनिक पास से जाकर देखा।
पड़ा हुआ था धर्मदास वह, कौन मिटाये विधि का लेखा।28।
धर्मदास होकर अवाक फिर, करुणा-कातर स्वर में बोला।
याद करो वे कसमे-वादे, मधु-मिठास वाणी में घोला।
भावी कौन टाल सकता है, मुझे न तुम ठुकराओ ऐसे।
किन्तु न होती टस से मस वह, हाथ छुड़ाई जैसे-तैसे।29|
खजाचन्द से लिपट-लिपटकर, करने लगी विलाप कुमारी।
देख समर्पण प्रेम-भावना, धर्मदास की हिम्मत हारी।
फिर भी कहता साथ चलो तुम, अब दौलत की कमी न होगी।
कर निकाह लो मुझसे श्यामा, इंशाअल्लाह राज करोगी ।30।
धिक्कारी वह धर्मदास को, करके शव की ओर इशारा।
दूंगी खजाचन्द की बनके, बिता याद में जीवन सारा।
हिन्दू होकर हिन्दूकुश से, चाहे मुझको पड़े भागना ।
मुसलमान मैं नहीं बनूंगी, चाहे सागर पड़े लाँघना।31।
तुमने कीमत बड़ी चुकाई, जाओ देव-मूर्तियां तोड़ो।
कलमा पढ़ा हिंदुओं को अब, जाकर नये धर्म से जोड़ो।
कहाँ कौन सी कीमत मैंने, बोलो आकर यहाँ चुकाई।
भला पास में क्या था मेरे, खर्च न की मैंने इक पाई।32|
सत्य-सनातन एक खजाना, श्यामा ने तब याद दिलाया।
पाकर राम-कृष्ण-गुरुओं से, जिसको तुमने आज लुटाया।।
मैंने हरदम खजाचन्द के, कोमल भावों को ठुकराया।
प्रायश्चित करने का अवसर, आज तुम्हारे कारण आया।33|
तड़प उठा दिल हर पठान का, सबने मिलकर चिता सजाई।
खजाचन्द की बेवा बनकर, वहीं किनारे उम्र अलख जगाई।
आस-पास वह धर्मदास फिर, कहीं कभी भी नजर न आया।
कई महीने यूँ ही बीते, दिखी एकदिन मानव छाया।34।
फटे हुए कपड़ो में देखा, जैसे उसने एक भिखारी।
धर्मदास कह चीख उठी वह, असमंजस में अबला नारी।
मुझे माफ कर दो अब तो तुम, नहीं कभी इस्लाम कबूला।
घर वापस आ गया शाम को, रहा सुबह का अब तक भूला।35|
मैं तो धर्मवीर की पत्नी, धर्मदास से अब क्या लेना।
वीर पुरुष हो गया अमर अब, तुझसे क्या लेना या देना।
किया कलंकित हिन्दुधर्म को, हटो सामने से तुम घर के।
धर्मदास आँखों से ओझल, हुआ आँख में पानी भर के।36।
पानी भरने चली कुंआ पर, श्यामा अगले दिवस सवेरे।
एक लाश को गिद्ध नोचते, कुछ कुत्ते भी उसको घेरे।
लगा धड़कने दिल श्यामा का, तनिक पास से जाकर देखा।
पड़ा हुआ था धर्मदास वह, कौन मिटाये विधि का लेखा।37।

बूढी काकी : मुंशी प्रेमचंद
विधवा बूढ़ी काकी की सम्पत्ति भतीजा पाया।
देखभाल का किया वायदा, कभी न किन्तु निभाया।
पंडित बुद्धिनाथ की रूपा, धर्मभीरु पर चंचल।
वह भी काकी की काया का, कष्ट बढ़ाती प्रतिपल।।
जिह्वा-स्वाद बचा था केवल, शेष शिथिल थी काया।
विधवा बूढ़ी काकी की सम्पत्ति भतीजा पाया।।1।।
है बीमारीग्रस्त देह पर, भूख बड़ी बीमारी।
बुरा-भला कहती न किसी को, सहती विपदा सारी।
किन्तु भूख बर्दाश्त न होती, रो रो माँगे खाना।
रूपा और न उसके लड़के, छोड़े उसे सताना।
बुद्धिनाथ ने काकी का धन, खाया और पचाया।
देखभाल का किया वायदा, कभी न किन्तु निभाया।2 ।
अगर उपेक्षा होती उसकी, गला फाड़कर रोती ।
केवल छोटी बड़ी लाडली, साथ कदाचित होती।
चना-चबैना खीर मिठाई, कहीं न छीने भाई।
इसीलिए इस काकी को वह, रक्षा-कवच बनाई।
स्वार्थ सहानुभूति में परिणित, मन ही मन मुस्काया।
विधवा बूढ़ी काकी की सम्पत्ति भतीजा पाया।3।
बुद्धिनाथ के घर तिलकोत्सव का होता आयोजन।
तरह तरह की बनी व्यवस्था, उच्च कोटि का भोजन।
एक कोठरी में फैली है, फिर भी बड़ी उदासी।
लगी भूख बूढ़ी काकी को, कब से अच्छी-खासी।
किन्तु किसी भी कर्मजले ने वहाँ उन्हे न बुलाया।
देखभाल का किया वायदा, कभी न किन्तु निभाया।4।
मुँह में पानी भर-भर आता, बढ़ी गजब उत्सुकता।
तरह तरह की खुशबू से मन, रोके यहाँ न रुकता।
घिसट-घिसटकर वहाँ चली वह, जहाँ जमे हलवाई।
रूपा की ज्यों नजर पड़ी वह काकी पर चिल्लाई।
क्यों आकर बाहर बैठी तुम, अभी न कोई खाया।
विधवा बूढ़ी काकी की सम्पत्ति भतीजा पाया।5।
बूढ़ी काकी वापस लौटी, बिन रोये-चिल्लाये।
पश्चाताप प्रतीक्षा करती, शीघ्र अतिथि कुल खाये।
एक घरी फिर बीती ज्यों-त्यों, करे कल्पना कोरी।
आयेगी लाडली बुलाने, किन्तु न आई छोरी।
सभी नारियों ने यद्यपि कुल, जेवनार भी गाया।
देखभाल का किया वायदा, कभी न किन्तु निभाया।6|
स्वादेन्द्रियाँ हुईं रोमांचित, करने लगी किलोलें।
कब होगी साकार कल्पना, तृप्त अतिथि गण हो लें।
उकड़ू बैठ घिसट कर काकी, पंगत बीच पहुंचती।
छी छी छी छी कौन घुसा यह, पंगत सकल चिहुंकती।
बुद्धिनाथ भी भड़क कोठरी में उसको धकियाया।
विधवा बूढ़ी काकी की सम्पत्ति भतीजा पाया।7।
पूरी के बदले वह धक्का खाकर सुध-बुध खोई।
बेहोशी मे कई घरी फिर, अस्त-व्यस्त वह सोई।
पूरी सब्जी लिए लाडली, आकर उसे जगाई।
चट कर जाती तिनका-तिनका, लेकिन स्वाद न पाई।
उत्सव के पकवानों पर फिर, उसका मन ललचाया।
देखभाल का किया वायदा, कभी न किन्तु निभाया।8|
दया लाडली को आई तो, काकी आई बाहर।
क्षुधा तृप्त करने वह लगती, अब तो जूठन खाकर।
इसी बीच रूपा की निद्रा, बेचैनी में टूटी।
बाहर आ काकी को ताका, लगा कि किस्मत फूटी।
खुद की करतूतों से डरकर, उसका दिल घबराया।
विधवा बूढ़ी काकी की सम्पत्ति भतीजा पाया।9।
मुझसे भारी भूल हुई जो, काकी जूठा खाये।
जिसका धन भोगें हम उसकी, हाय न कहीं सताये।
धर्मभीरु महिला डर जाता, लाई भरकर थाली।
फिर सुकून से बूढ़ी काकी, मस्त-मगन सब खा ली।
दिल से दी आशीष सभी को, समय स्वयं मुस्काया।
देखभाल का किया वायदा, भर जिंदगी निभाया।।
विधवा बूढ़ी काकी की सम्पत्ति भतीजा पाया।10।


काबुलीवाला: रवीन्द्रनाथ टैगोर

टैगोर जी का काबुलीवाला बहुत मशहूर है।
अब तालिबानी है हुकूमत, और काबुल दूर है।।
बिटिया मिनी चंचल बड़ी, दरबान को टोका करे।
कौआ न बोलुन काक आछे, बोलकर जाती परे।
आकाश से पानी गिराये, एक हाथी सूँढ़ से।
भोला मुझे समझा रहा, पीछा छुड़ाओ मूढ़ से।
वह बात बे-सिर-पैर की, यूँ ही किया करती सदा।
बिटिया हमारी जिन्दगी, वह ही हमारी सम्पदा।।
मेवे भरा थैला लिए, वह काबुलीवाला उधर।
फेरे लगाता नित्य ही, थी खेलती बिटिया जिधर।
ओ काबुलीवाले सुनो, ओ काबुलीवाले ठहर।
आवाज देकर दौड़ती, भयभीत हो जाती मगर।
थैला अनोखा देखकर, वह सोच में हरदिन पड़े।
बच्चे कई उसमें मिलेंगे, लें तलाशी यदि बड़े।
उसको लगे यह काबुलीवाला बहुत ही क्रूर है।
अब तालिबानी है हुकूमत, और काबुल दूर है।।
डर दूर करने के लिए, मैने उसे बुलवा लिया।
वह मुस्कुराया पास आकर और अभिवादन किया।
फिर खोल थैला वह उसे बादाम किसमिस दे रहा।
ले लो डरो मत तुम जरा भी, प्यार से मैंने कहा।।
छह-सात दिन बाहर बिता आया सुबह मैं आज जब।
थे काबुली एवं मिनी, बदला हुआ अंदाज सब।
बादाम किसमिस से मिनी की जेब पूरी थी भरी।
करती रही वह बात मुझपर डाल नजरें सरसरी।।
आता रहा फिर काबुली, दोनों बहुत हिलमिल गये ।
दोनों करें नित दिल्लगी, हर दिन बनें किस्से नये।
जब प्रश्न पूछे काबुली जाना तुझे ससुराल कब ।
जाना तुम्हें ससुराल कब, लेती मिनी झट पूछ तब।
तब तानकर घूंसा करे,वह काबुली यूँ मसखरी।
ससुरा पिटेगा और कर दूंगा तबीयत मैं हरी।
हँसने लगी यह देखकर, बिटिया मिनी तब जोर से।
पर आज मन लगता नहीं, मेरा मिनी का भोर से।।
सुन शोरगुल बाहर गया, तो काबुली रहमत दिखा।
था खून से कुर्ता सना, हे दैव जाने क्या लिखा।
उसने चलाया था छुरा, पकड़ा सिपाही ने तभी।
तुम जा रहे ससुराल क्या, पूछी मिनी आकर अभी।
हँसकर भरे हामी मगर, मुखड़ा बड़ा बेनूर है।
अब तालिबानी है हुकूमत, और काबुल दूर है।।
उस काबुली का ख्याल जेहन से मिनी के मिट रहा।
मैं भी उसे भूला बहुत ज्यादा नदी में जल बहा।
अपनी मिनी के ब्याह की पूरी हुई तैयारियाँ ।
आकर तभी देता सलामी, काबुली रहमत मियाँ।।
मैं जेल से छूटा अभी, सीधा इधर ही आ गया।
हूँ चाहता मिलना मिनी से, कीजिए मुझपर दया।
बच्ची अभी भी है मिनी, विश्वास था शायद उसे।
मैने कहा मैं व्यस्त हूँ, उसके बहे अश्रु से।।
होकर दुखी वापस चला वह, फिर ठहरकर बोलता।
यह दीजिए मेवा मिनी को, माफ कर मेरी खता।
देने लगा पैसा उसे तो काबुली कहने लगा।
आया न सौदा बेचने, बस प्यार बिटिया का जगा।
बिटिया हमारी भी मिनी सी, छोड़कर आया जिसे।
अल्लाह का है शुक्र रविकर दोष दूँ बोलो किसे।
कागज पुराना जेब से बाहर निकाला काबुली।
जब छाप पंजे का दिखा, तो सत्य की आँखें खुली।
चलते समय इस देश को, रख हाथ बिटिया का यहाँ।
कालिख लगाकर कोयले की, चित्र यह छापा वहाँ।।
इस बीच ही गहने पहन, दुल्हन वहाँ पर आ गई।
क्या सास के घर जा रही, सुनकर मिनी सकुचा गई।
मुँह फेर कर दुल्हन मिनी, वापस वहाँ से चल गई।
जैसे पिता के प्रेम को, जाने बिना वह छल गई।
होकर दुखी वह काबुली, कुछ देर तक बैठा रहा।
कर याद बेटी को यहाँ, दुख दर्द कितना है सहा।
उससे कहा रहमत सुनो, महसूस कर दुख-क्लेश को।
यह लो किराया देश का, अब लौट जाओ देश को।
फिर ब्याह के कुछ खर्च कम, करने पड़े मुझको मगर।
मन शांत मेरा है बड़ा, बस खुश रहे अफगान हर।।
है प्यार उन सबके लिए, जो दूर है मजबूर है।
अब तालिबानी है हुकूमत, और काबुल दूर है।।

हंस-हंसिनी की कथा

हंस कहता हंसिनी से, छोड़ पापिस्तान को |
उल्लुओं से यह भरा, खतरा यहाँ सम्मान को |
शीघ्र उड़कर लो निकल, वह हंस समझाता रहा |
नानुकुर करती रही वह, घाम भी जाता रहा ||

आ गया उल्लू तभी, वह हंस से कहने लगा |
छोड़ मेरी धर्म-पत्नी, क्यों इसे लेकर भगा |
हंस माथा पीटता, अब सत्य आशंका हुई |
तर्क कोई चल न पाया,

फिर काजी का न्याय, हंस की छिनी संगिनी।
उल्लू गाता गीत, पीटती माथ हंसिनी ।
दोहा
जहाँ पंच मुँह देखकर, करते रविकर न्याय।
रहे वहाँ वीरानगी, सज्जन मुँह की खाय।।

Thursday, 1 August 2019

काया

काया महकाई सतत, लेकिन हृदय मलीन।
चहकाई वाणी विकट, प्राणी बुद्धिविहीन।
प्राणी बुद्धिविहीन, भरी है हीन भावना।
खिसकी जाय जमीन, न करता किन्तु सामना।
पाकर उच्चस्थान, गर्व रविकर भर आया।
सर्वेसर्वा मान, नित्य सबको हड़काया।।

काया अजगर सी पड़ी, काम-काज सब छोड़।
भरा गले तक पुल-सड़क, निगले कई करोड़।
निगले कई करोड़, परस्पर होड़ मची है।
जोड़-तोड़ बेजोड़, अभी हर चीज पची है।
रविकर कहता किन्तु, हुई कब किस की माया।
लेंगी चींटी नोच, नहीं जब साँस बकाया।

काया को देगी जला, देगी मति को मार।
क्रोध दबा के मत रखो, यह तो है अंगार।
यह तो है अंगार, क्रोध यदि बाहर आये।
आ जाये सैलाब, और सुख शान्ति बहाये।
कभी किसी पर क्रोध, अगर रविकर को आया।
सिर पर पानी डाल, बदन पूरा महकाया।।
देह देहरी देहरे, दो, दो दिया जलाय ।
कर उजेर मन गर्भ-गृह, कुल अघ-तम दहकाय ।
कुल अघ तम दहकाय , दीप दस घूर नरदहा ।
गली द्वार पिछवाड़ , खेत खलिहान लहलहा ।
देवि लक्षि आगमन, विराजो सदा केहरी ।
सुख समृद्ध सौहार्द, बसे कुल देह देहरी ।।
रखता सालों-साल ज्यों, रविकर सुदृढ़ गेह ।
सदाचार-शुचि-योग से, करे पुष्ट त्यों देह ।
करे पुष्ट त्यों देह, मरम्मत टूट फूट की ।
सेहत के प्रतिकूल, कभी ना जिभ्या भटकी ।
खट्टे फल सब्जियां, विटामिन सी नित चखता ।
यही विटामिन सुपर, निरोगी हरदम रखता ॥

Friday, 14 September 2018

काव्य पाठ

काव्य पाठ
नमन हे राष्ट्रकवि दिनकर जयतु-जय रामधारी की |
हमेशा सिंह से गरजे, सदा उसकी सवारी की |
रथी बनकर बिखेरी रश्मि दिनकर कर्ण-अर्जुन की
रचे सौ ग्रंथ अलबेले उकेरी खूब बारीकी ||

विदेशी आक्रमणकारी बड़े निष्ठुर बड़े बर्बर |
पराजित शत्रु की जोरू-जमीं-जर छीन लें अकसर |
कराओ सिर कलम अपना, पढ़ो तुम अन्यथा कलमा
जिन्हें थी जिंदगी प्यारी, बदल पुरखे जिए रविकर ||

उमर मत पूछ औरत की, बुरा वह मान जायेगी।
मरद की आय मत पूछो, उसे ना बात भायेगी।
फिदाइन यदि मरे मारे, मियाँ तुम मौन रह जाना।
धरम यदि पूछ बैठे तो, सियासत जान खायेगी।।

मदर सा पाठ लाइफ का पढ़ाता है सिखाता है।
खुदा का नेक बन्दा बन खुशी के गीत गाता है।
रहे वह शान्ति से मिलजुल, करे ईमान की बातें
मगर फिर कौन हूरों का, उसे सपना दिखाता है।।

बड़ी तकलीफ़ से श्रम से, रुपैया हम कमाते हैं ।
उसी धन की हिफाज़त हित बड़ी जहमत उठाते हैं।
कमाई खर्चने में भी, निकलती जान जब रविकर
कहो फिर जिंदगी को क्यों कमाने में खपाते हैं।।

पतन होता रहा फिर भी बहुत पैसा कमाया है ।
किया नित धर्म की निन्दा, तभी लाखों जुटाया है।
सहा अपमान धन खातिर, अहित करता हजारों का
पसारे हाथ जाता वो नहीं सुख-शान्ति पाया है।।

कामादि का बैताल जब शैतान से मिलकर गढ़ा।
तो कर्म के कंधे झुका, वो धर्म के सिर पर चढ़ा।
मुल्ला पुजारी पादरी परियोजना लाकर कई
पूजाघरों से विश्व को वे पाठ फिर देते पढा।

सियासत खेल करती है सिया वनवास जाती है।
परीक्षा नारि ही देती पुरुष को शर्म आती है।
अगर है सुपनखा कोई उसे नकटा बना देते।
सिया एवं सती को फिर सियासत में फँसा देते।।

नहीं पीता कभी पानी, रियाया को पिलाता है।
नकारा चाय भी अफसर, नकारा जान खाता है।
नहीं वह चाय का प्यासा, कभी पानी नहीं मांगे
मगर बिन चाय-पानी के, नहीं फाइल बढ़ाता है।।

चुनावी हो अगर मौसम बड़े वादे किये जाते।
कई पूरे किये जाते कई बिसरा दिए जाते।
किया था भेड़ से वादा मिलेगा मुफ्त में कम्बल
कतर के ऊन भेड़ो का अभी नेता लिये जाते।।
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तुम तो मेरी शक्ति प्रिय, सुनती नारि दबंग।
कमजोरी है कौन फिर, कहकर छेड़ी जंग।।

माथे पर बिन्दी सजा, रही नदी में तैर।
सारे दुष्कर कार्य कर, जमा रही वह पैर।|

मार्ग बदलने के लिए, यदि लड़की मजबूर |
कुत्ता हो या आदमी, मारो उसे जरूर ||

रस्सी जैसी जिंदगी, तने तने हालात |
एक सिरे पे ख्वाहिशें, दूजे पे औकात ||

दल के दलदल में फँसी, मुफ्तखोर जब भेड़ ।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उसका ऊन उधेड़ ।।

पैर न ढो सकते बदन, किन्तु न खुद को कोस ।
पैदल तो जाना नहीं, तत्पर पास-पड़ोस ।।

देह जलेगी शर्तिया, लेकर आधा पेड़।
एक पेड़ तो दे लगा, दे आंदोलन छेड़।।
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शहीदों से करे सत्ता हमेशा जब दगाबाजी।
भगत-अशफाक-विस्मिल यूँ कराते दर्ज नाराजी।

दिया सिर व्यर्थ फंदे में, फँसाई व्यर्थ ही गर्दन ।
जवानी व्यर्थ क्यों कर दी, लुटे जब रोज जन गण मन ।
मिली क्या खाक आजादी, मिले दो देश दुनिया को।
कभी कोई कहाँ बाँटा, मगर तुम बाँटते माँ को।

इधर नेहरू उधर जिन्ना, मगर हम हारते बाजी।
भगत अशफाक विस्मिल यूँ कराते दर्ज नाराजी।।

नहीं जन-गण सुरक्षित है गरीबी है अशिक्षा है।
करे क्यों बाल मजदूरी, मँगाये कौन भिक्षा है।
विधानों की उपेक्षा है, उपेक्षा धर्म की होती।
हुए क्यों वृद्ध अपमानित, अभी भी नारि क्यों रोती।
अमीरी मौज करती है, यहाँ सत्ता वहाँ काजी।
भगत अशफाक विस्मिल यूँ कराते दर्ज नाराजी ।2।।

कृषक की खुदकुशी देखी, नशे में धुत कई पीढ़ी।
विरासत राजनैतिक फिर लगाये पुत्र हित सीढ़ी।
अजब फिरकापरस्ती है, बढ़े बलवे बढ़े दंगे।
बढ़ी है भीड़ हिंसा.भी, हमामों मे सभी नंगे।
घुटाले रेप मर्डर की छपे हर दिन खबर ताजी।
भगत अशफाक विस्मिल यूँ कराते दर्ज नाराजी।3।

शहीदों की शिकायत पर, हँसी-ठठ्ठा करे सत्ता।
बुलाया सत्र संसद का, दिवाने-खास अलबत्ता।
भरे छल-दम्भ-मक्कारी, हुई चर्चा बड़ी लम्बी-
मगर निष्कर्ष निकले बिन, बढ़ाया चौगुना भत्ता।।
बघारे शान फिर सत्ता, हुई चालू हवाबाजी।
शहीदो से करे सत्ता, हमेशा ही दगाबाजी।। 

Tuesday, 13 February 2018

बेलेन्टाइन -

कुंडलियाँ छंद (5)
बेला वेलंटाइनी, नौ सौ पापड़ बेल ।
वेळी ढूँढी इक बला, बल्ले ठेलम-ठेल । 
बल्ले ठेलम-ठेल, बगीचे दो तन बैठे ।
बजरंगी के नाम, पहरुवे तन-तन ऐंठे।
ढर्रा छींटा-मार, हुवे न कभी दुकेला ।
भंडे खाए खार, भाड़ते प्यारी बेला ।।

रोज रोज के चोचले, रोज दिया उस रोज |
रोमांचित विनिमय बदन, लेकिन बाकी डोज |
लेकिन बाकी डोज, छुई उंगलियां परस्पर |
चाकलेट का स्वाद, तृप्त कर जाता अन्तर |
वायदा कारोबार, करे धन खोज खोज के |
हों आलिंगन बद्ध, बवाली रोज रोज के||

बहा बहाने ले गए, आना जाना तेज |
अश्रु-बहाने लग गए, रविकर रखे सहेज |
रविकर रखे सहेज, निशाने चूक रहे हैं |
धुँध-लाया परिदृश्य, शब्द भी मूक रहे हैं |
बेलेन्टाइन आज, मनाने के क्या माने |
बदले हैं अंदाज, गए वे बहा बहाने ||

फूली फूली घूमती, एक माह से शीत |
फूली सरसों भी तभी, फैली जग में प्रीत |
फैली जग में प्रीत, मधुर रस पीले पीले |
छाई नई उमंग, जिंदगी जी ले जीले |
पीले पीले फूल, तितलियाँ रस्ता भूली |
भौरें मस्त अनंग, तितलियाँ रति सी फूली ||

हर दिन तो अंग्रेजियत, मूक फिल्म अविराम |
देह-यष्टि मकु उपकरण, काम काम से काम |
काम काम से काम, मदन दन दना घूमता |
करता काम तमाम, मूर्त मद चित्र चूमता |
थैंक्स गॉड वन वीक, मौज मारे दिल छिन-छिन |
चाकलेट से रोज, प्रतिज्ञा हग दे हर दिन ||

Sunday, 4 February 2018

अतिथि देवो भव -


अभ्यागत गतिमान यदि, दुर्गति से बच जाय।
दुख झेले वह अन्यथा, पिये अश्रु गम खाय।
पिये अश्रु गम खाय, अतिथि देवो भव माना।
लेकिन दो दिन बाद, मारती दुनिया ताना।
कह रविकर कविराय, करा लो बढ़िया स्वागत।
शीघ्र ठिकाना छोड़, बढ़ो आगे अभ्यागत।।

Thursday, 14 December 2017

काव्य पाठ २८ जनवरी

सोते सोते भी सतत्, रहो हिलाते पैर।
दफना देंगे अन्यथा, क्या अपने क्या गैर।।

दौड़ लगाती जिन्दगी, सचमुच तू बेजोड़ 
यद्यपि मंजिल मौत है, फिर भी करती होड़  
                                                            
रस्सी जैसी जिंदगी, तने-तने हालात. 
एक सिरे पर ख्वाहिशें, दूजे पे औकात .

है पहाड़ सी जिंदगी, चोटी पर अरमान.
चढ़े व्यक्ति झुककर अगर, हो चढ़ना आसान.

दल के दलदल में फँसी, मुफ्तखोर जब भेड़ ।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उसका ऊन उधेड़ ।।

गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर।
घर घर मरहम तो नही, मिलता नमक जरूर।।

अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ।
नहीं ठोक पाया कभी, खुद से खुद की पीठ।।

बेमौसम ओले पड़े, चक्रवात तूफान।
धनी पकौड़ै खा रहे, खाये जहर किसान।।

चाय नही पानी नही, पीता अफसर आज।
किन्तु चाय-पानी बिना, करे न कोई काज।।

चुरा सका कब नर हुनर, शहद चुराया ढेर।
मधुमक्खी निश्चिंत है, छत्ता नया उकेर।।

अधिक आत्मविश्वास में, इस धरती के मूढ़ |
विज्ञ दिखे शंकाग्रसित, यही समस्या गूढ़ ||

धर्म-कर्म पर जब चढ़े, अर्थ-काम का जिन्न |
मंदिर मस्जिद में खुलें, नए प्रकल्प विभिन्न ||

धनी पकड़ ले बिस्तरा, भाग्य-विधाता क्रूर ।
ले वकील आये सगे, रखा चिकित्सक दूर।।

छलके अपनापन जहाँ, रविकर रहो सचेत।
छल के मौके भी वहीं, घातक घाव समेत।।

होती पाँचो उँगलियाँ, कभी न एक समान।
मिलकर खाती हैं मगर, रिश्वत-धन पकवान ।।

जब से झोंकी आँख में, रविकर तुमने धूल।
अच्छे तुम लगने लगे, हर इक अदा कुबूल।।

भाषा वाणी व्याकरण, कलमदान बेचैन।
दिल से दिल की कह रहे, जब से प्यासे नैन।।

नहीं हड्डियां जीभ में, पर ताकत भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियां, देखो कभी जरूर ||

रुतबा सत्ता ओहदा, गये वक्त की बात।
वक्त मुरौव्वत कब करे, दिखला दे औकात।।

रविकर रोने के लिए, मिले न कंधा एक।
चार चार कंधे मिले, बिलखें आज अनेक।।

सराहना प्रेरित करे, आलोचना सुधार।
निंदक दो दर्जन रखो, किन्तु प्रशंसक चार।

मुक्तक 
मदर सा पाठ लाइफ का पढ़ाता है सिखाता है।
खुदा का नेक बन्दा बन खुशी के गीत गाता है।
रहे वह शान्ति से मिलजुल, करे ईमान की बातें
मगर फिर कौन हूरों का, उसे सपना दिखाता है।।

उमर मत पूछ औरत की, बुरा वह मान जायेगी।
मरद की आय मत पूछो, उसे ना बात भायेगी।
फिदाइन यदि मरे मारे, मियाँ तुम मौन रह जाना।
धरम यदि पूछ बैठे तो, सियासत जान खायेगी।।

कामार्थ का बैताल जब शैतान ने रविकर गढ़ा।
तो कर्म के कंधे झुका, वो धर्म के सिर पर चढ़ा।
मुल्ला पुजारी पादरी परियोजना लाकर कई
पूजाघरों से विश्व को वे पाठ फिर देते पढा।

बड़ी तकलीफ़ से श्रम से, रुपैया हम कमाते हैं ।
उसी धन की हिफाज़त हित बड़ी जहमत उठाते हैं।
कमाई खर्चने में भी, निकलती जान जब रविकर 
कहो फिर जिंदगी को क्यों कमाने में खपाते हैं।।

फिसलकर सर्प ऊपर से गिरा जब तेज आरे पर।
हुआ घायल, समझ दुश्मन, लिया फिर काट झुँझलाकर।
हुआ मुँह खून से लथपथ, जकड़ता शत्रु को ज्यों ही
मरे वह सर्प अज्ञानी,  यही तो हो रहा रविकर  ।।

होता अकेला ही हमेशा आदमी संघर्ष मे ।
जग साथ होता है सफलता जीत में उत्कर्ष में।
दुनिया हँसी थी मित्र, जिस जिस पर यहाँ गत वर्ष तक
इतिहास उस उस ने रचा इस वर्ष भारत वर्ष में।।

पतन होता रहा प्रतिपल, मगर दौलत कमाता वो ।
करे नित धर्म की निन्दा, खजाना लूट लाता वो।
सहे अपमान धन खातिर, बना गद्दार भी लेकिन
पसारे हाथ आया था, पसारे हाथ जाता वो।।

अरबपति पुत्र की माता, बनी कंकाल सड़ गलकर।
रहे रेमंड का मालिक, किराये की कुटी लेकर।
कलेक्टर खुदकुशी करता, कलह जीना करे दूभर।
हितैषी खोज तू, है व्यर्थ रुतबा शक्ति धन रविकर।

मुसीबत की करो पूजा, सिखाकर पाठ जायेगी।
करो मत फिक्र कल की तुम, हँसी रविकर उड़ायेगी।
यहाँ तो मौत आने तक मजे से हंस गाता है ।
वहीं वह मोर नाचा तो, मगर आँसू बहाता है।।

हरिगीतिका 
अलमारियों में पुस्तकें सलवार कुरते छोड़ के।
गुड़िया खिलौने छोड़ के, रोये चुनरियाओढ़ के।
रो के कहारों से कहे रोके रहो डोली यहाँ।
माता पिता भाई बहन को छोड़कर जाये कहाँ।
लख अश्रुपूरित नैन से बारातियों की हड़बड़ी।
लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।

हरदम सुरक्षित वह रही सानिध्य में परिवार के।
घूमी अकेले कब कहीं वह वस्त्र गहने धार के।
क्यूँ छोड़ने आई सखी, निष्ठुर हुआ परिवार क्यों।
अन्जान पथ पर भेजते अब छूटता घर बार क्यों।।
रोती गले मिलती रही, ठहरी नही लेकिन घड़ी।
लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।

आओ कहारों ले चलो अब अजनबी संसार में।
शायद कमी कुछ रह गयी है बेटियों के प्यार में।
तुलसी नमन केला नमन बटवृक्ष अमराई नमन।
दे दो विदा लेना बुला हो शीघ्र रविकर आगमन।।
आगे बढ़ी फिर याद करती जोड़ती इक इक कड़ी।
लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।

Tuesday, 17 October 2017

देह देहरी देहरा, दो दो दिया जलाय -

देह देहरी देहरा, दो दो दिया जलाय ।
कर उजेर मन गर्भ-गृह, दो अघ-तम दहकाय ।
दो अघ-तम दहकाय , घूर नरदहा खेत पर ।
गली द्वार-पिछवाड़, प्रकाशित कर दो रविकर।
जय जय लक्ष्मी मातु, पधारो आज शुभ घरी।
सुख-समृद्धि-सौहार्द, बसे मम देह देहरी ।।

देह, देहरी, देहरा = काया, द्वार, देवालय 
घूर = कूड़ा