Saturday 27 October 2012

छोड़ चलूं यह प्रांत, करूँगी कृष्ण-साधना-




प्रेम-सेवइयां खाय के, लुच्चे करें हलाल ।
घूस खाय के ख़ास-जन, खूब बजावें गाल । 
खूब बजावें गाल, चाल टेढ़ी ही चलते।
आम रसीले चूस, भद्र-जनता को छलते ।
कडुआहट भरपूर, भरें जीवन में भैया  ।
चीनी कडुवी होय, चापते प्रेम-सेवइयां ।।

तैयारी की गिलट से, गिरगिटान मद-चूर |
गिरहबाज गोते लगा, मजा करे भरपूर |

मजा करे भरपूर, घोर कलई करवा कर |
पद-मद चढ़ा शुरूर, चना थोथा बजवाकर |

पर कलई इक रोज, खुले सिटपिटा तुम्हारी |
*गिलगिल मार भगाय, रखो करके तैयारी |

*घड़ियाल / मगरमच्छ 

यदुरानी तू धन्य है, धन्य हुआ गोपाल ।
दही-मथानी से रही, माखन प्रेम निकाल ।
माखन प्रेम निकाल, खाय के गया सकाले ।
ग्वालिन खड़ी निढाल, श्याम माखन जब खाले ।
जकड़ कृष्ण को लाय, पड़े  दो दही मथानी ।
बस नितम्ब सहलाय, हँसे गोपी यदुरानी ।।


 लगे मनोरम अति-प्रिये, खिन्न मनस्थिति शांत |
रमे कांत-एकांत में, अब भावे ना कांत |
अब भावे ना कांत, कांती-कष्ट-कांदना |
छोड़ चलूं यह प्रांत, करूँगी कृष्ण-साधना |
मन में रही ना भ्रांत, छला जो तुमने हरदम  |

कृष्णा छलिया श्रेष्ठ, भजूँ वो लगे मनोरम ||
कांत=मनोरम
  कांत=पति
  कांती= बिच्छू का दंश

संसारी यह शनीचरा, गुरुवर हुआ  समाप्त |
मासिक वेतन पा रहे, अभी रईसी व्याप्त |
अभी रईसी व्याप्त, पकडुआ व्याह रचाए |
पाया नहीं दहेज़, किन्तु किडनेप हो जाए |
दो रविकर दस लाख, शुरू टीचर की बारी
किस्मत जाए जाग, बढ़ा रूतबा संसारी  ||


श्रीमती की बात से , बाढ़े मन अनुराग |
वट-सावित्री की कथा, बाग़-बाग़ बड़-भाग |
बाग़-बाग़ बड़-भाग, छुडा कब्जे से यम के |
सावित्री का तेज, माँग में दुति-सम दमके |

प्रिये प्राण पर पाय, प्राण-प्रिय बुरी गती की |
मुट्ठी रखे दबोच, भयंकर श्रीमती की ||

4 comments:

  1. वाह क्या बात है ज़नाब!
    बहुत सुन्दर!

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  2. सुन्दर प्रस्तुति
    बहुत बहुत बधाई
    श्रीमती की बात से, जागे मन अनुराग।
    रविकर जी की कुंडली, हरित करे हिय भाग।।

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  3. बहुत ख़ूब .आभार

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