Wednesday, 5 July 2017

कविगोष्ठी-1

चाय नही पानी नही, पीता अफसर आज।
किन्तु चाय-पानी बिना, करे न कोई काज।।

दिनभर पत्थर तोड़ के, करे नशा मजदूर।
रविकर कुर्सी तोड़ता, दिखा नशे में चूर।।

बेमौसम ओले पड़े, चक्रवात तूफान।

धनी पकौड़ै खा रहे, खाये जहर किसान।।

होती पाँचो उँगलियाँ, कभी न एक समान।
मिलकर खाती हैं मगर, रिश्वत-धन पकवान ।।

भेड़-चाल जनता चले, खले मुफ्त की मार।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उनका ऊन उतार।।

धनी पकड़ ले बिस्तरा, लगे घूरने गिद्ध।
लें वकील को वे बुला, लेकिन वैद्य निषिद्ध।।

गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर।
घर घर मरहम तो नही, मिलता नमक जरूर।।

छलके अपनापन जहाँ, रविकर रहो सचेत।

छल के मौके भी वहीं, घातक घाव समेत।।

वैसे तो टेढ़े चलें, कलम शराबी सर्प।
पर घर में सीधे घुसें, छोड़ नशा विष दर्प।।

रविकर रोने के लिए, मिले न कंधा एक।
चार चार कंधे मिले, बिलखें आज अनेक।।

नहीं हड्डियां जीभ में, किन्तु शक्ति भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियाँ, सुन रविकर मगरूर ||

आँख-तराजू तौल दे, भार बिना पासंग।

हल्कापन इन्सान का, देख देख हो दंग।।

3 comments:

  1. यही हाल है आजकल, लाजवाब रचना.
    रामराम
    #हिन्दी_ब्लॉगिंग

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-07-2017) को "न दिमाग सोता है, न कलम" (चर्चा अंक-2659) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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