कुंडली
बकड़ा-बकड़ी पर सदा, चाबें अंकुर-*नान ||
*नन्हीं
चाबें अंकुर-नान, तर्क भी देते घटिया |
दोगे घर में फूंक, बेंच दोगे जा *हटिया |
*बाजार
बनमाली को त्रास, व्यर्थ क्यूँ देना प्यारे |
खाकर करता मुक्त, काम आ गए हमारे ||
आखिर जलना अटल, बचा क्यूँ रखे लकड़ियाँ -
जलें लकड़ियाँ लोहड़ी, होली बारम्बार ।
जले रसोईं में कहीं, कहीं घटे व्यभिचार ।
कहीं घटे व्यभिचार, शीत-भर जले अलावा ।
भोगे अत्याचार, जिन्दगी विकट छलावा ।
रविकर अंकुर नवल, कबाड़े पौध कबड़िया ।
आखिर जलना अटल, बचा क्यूँ रखे लकड़ियाँ ।।
चित्र के साथ सुन्दर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteसच कहूं तो इस समय देश की ही ग्रह दशा ही खराब है। हर जगह गंदगी और बेईमानी का का बोलबाला है। लगता है कि सच्चाई और ईमानदारी आज कल किसी हिल स्टेशन पर बैठकर देश में हो रहे तमाशे को देख रही हैं।
ReplyDeleteNice post.
बहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteलकड़ी के माध्यम से आपने बहुत कुछ कहा
सार्थक स्रजन!
ReplyDeleteनारी का आजन्म से ता -मृत्यु तक क्रमिक शोषण दोहन दिखाती रचना .पोषण करना भूल रहा है समाज अपने ही लहू का .सृष्टि की नियंता नियामक अन्नपूर्णा का .
ReplyDeleteबदलाव के लिए अस्त्र उठाती है यह रचना .
कृपया यहाँ भी पधारें -
सोमवार, 21 मई 2012
यह बोम्बे मेरी जान (चौथा भाग )
http://veerubhai1947.blogspot.in/
तेरी आँखों की रिचाओं को पढ़ा है -
उसने ,
यकीन कर ,न कर .
रचना के संदेश बहुत महत्वपूर्ण हैं।
ReplyDeleteआभार आप सभी का |
ReplyDeleteविषय स्पष्ट हो पाया -
रचना सफल हुई ||
आभार ....
ReplyDeleteबहुत खूब !!
ReplyDeleteलकड़ी के माध्यम से बहुत पते की बात कही है ...बधाई अच्छी कुण्डलियाँ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.......
ReplyDeleteआति सुन्दर...
ReplyDeleteबहुत बढिया लकड़ी को माध्यम बना बहुत कुछ कहती रचना
ReplyDeleteवाह लकडी, आह लकडी ।
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