Sunday, 13 May 2012

मांगें मंदी चीज, इधर दुनिया में मंदी -

मंहगाई से त्रस्त जन, असफल सब तद्-बीज ।
गुणवत्ता उत्कृष्टता, मांगें मंदी चीज ।

मांगें मंदी चीज, इधर दुनिया में मंदी ।
अर्थव्यवस्था बैठ, होय छटनी सह बंदी ।

रविकर कैसा न्याय, एक को मंदी खाई ।
निन्यान्नबे हलकान, बड़ी जालिम मंहगाई ।।

12 comments:

  1. आपकी इस उत्कृष्ठ प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १५ /५/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी |

    ReplyDelete
  2. sarthak bhavo ka sanyojan,

    ReplyDelete
  3. दोहे अच्छे हैं

    ReplyDelete
  4. mahgaayi par sateek prastuti.

    ReplyDelete
  5. अच्छी अभिव्यक्ति...

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत ही बढ़िया और सटीक प्रस्तुति सामयिक यथार्थ को उभारती सी .मुखरित करती सी .

      Delete
  6. सचमुच जालिम महंगाई

    ReplyDelete
  7. सच में इस जालिम महगाई कहां से आई, इसे क्यों न नींद न आई।

    ReplyDelete
  8. सटीक और सुन्दर रचना...

    ReplyDelete
  9. mahgaaye ne trast kar rakha hai..acchi rachna ke liye badhayee

    ReplyDelete
  10. बहुत ही बढ़िया

    ReplyDelete
  11. चोट से चोटिल हुई

    बोझ से बोझिल हुई

    महगाई से मर गई ... जनता भारत की

    ReplyDelete