मंहगाई से त्रस्त जन, असफल सब तद्-बीज ।
गुणवत्ता उत्कृष्टता, मांगें मंदी चीज ।
मांगें मंदी चीज, इधर दुनिया में मंदी ।
अर्थव्यवस्था बैठ, होय छटनी सह बंदी ।
रविकर कैसा न्याय, एक को मंदी खाई ।
निन्यान्नबे हलकान, बड़ी जालिम मंहगाई ।।
आपकी इस उत्कृष्ठ प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १५ /५/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी |
ReplyDeletesarthak bhavo ka sanyojan,
ReplyDeleteदोहे अच्छे हैं
ReplyDeletemahgaayi par sateek prastuti.
ReplyDeleteअच्छी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया और सटीक प्रस्तुति सामयिक यथार्थ को उभारती सी .मुखरित करती सी .
Deleteसचमुच जालिम महंगाई
ReplyDeleteसच में इस जालिम महगाई कहां से आई, इसे क्यों न नींद न आई।
ReplyDeleteसटीक और सुन्दर रचना...
ReplyDeletemahgaaye ne trast kar rakha hai..acchi rachna ke liye badhayee
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteचोट से चोटिल हुई
ReplyDeleteबोझ से बोझिल हुई
महगाई से मर गई ... जनता भारत की