परदेसी बेटे से -
कंटकाकीर्ण
उस कठिन पथ पर ।
चलता रहा गोदी उठाकर ।
अक्षरों की भीड़-भारी-
निर्भय किया-
परिचय कराकर ।
था जीत का आनंद देता -
खेल में खुद को हराकर ।
पहली दफा स्कूल भेजा
बाइक पर आगे बिठाकर ।
प्रतियोगिताएँ जीत लेते
कठिनतम अभ्यास कर-कर ।
आज कालेज से निकलकर -
बस गए परदेश जाकर ।
पर-साल जब परदेश से, आओगे तुम गर्मियों में।
देखोगे ये गंग-जमुना,
और दूषित हो गई ।
कैसे पाओगे नहा ।।
कंधे झुके चश्मा लगा , झुर्रियां बढती चली-
हड्डियाँ भी गल रहीं ।
हर बार, पहले से हमें-
कमजोर पाओगे यहाँ ।।
हर बार, पहले से हमें-
ReplyDeleteकमजोर पाओगे यहाँ ।।
मार्मिक पोस्ट जो भाव विहल कर गई |
अब सुख की अपेक्षा कैसी?...मर्म वेधक,सार्थक रचना!
ReplyDeleteहर बार, पहले से हमें-
ReplyDeleteकमजोर पाओगे यहाँ ।।
हरगिज़ न ,आवोगे यहाँ
तुम खुश रहओ ,रहो जहां .
अच्छी भाव प्रस्तुति .
बिस्मिल्लाह से बिस्मिल तक सब भा गए ,
ReplyDeleteचर्चा में रविकर छा गए .
आज की चर्चा के लिए विशेष शुक्रिया भाई साहब .
हर वर्ष बस यही आस रहती है।
ReplyDeleteमार्मिक रचना ....
ReplyDeleteआभार भाई जी ...