Monday 22 February 2016

तीन ढाक के पात, खुदा की नेमत कहता-

रमिया रोजाना मरे, मियां करे उत्पात।
हाड़-मॉस देती जला, रहा निकम्मा ताप।
रहा निकम्मा ताप, बाप बनता ही रहता।

तीन ढाक के पात, खुदा की नेमत कहता।
दारू चखना रोज, गिनाये हरदिन कमियां।
मार खाय भरपेट, रखे फिर रोजा रमिया।।

Sunday 21 February 2016

रविकर गिरगिट एक से, रहे बदलते रंग

रविकर गिरगिट एक से, रहे बदलते रंग |
खिले गुलाबी ख़ुशी मन, हो सफ़ेद जब दंग |

हो सफ़ेद जब दंग, रचे रचना गड़बड़ सी |
झड़े हरेरी सकल, होय गर बहसा-बहसी |

बदन क्रोध से लाल, हुआ पीला तन डरकर |
है बदरंगी हाल, कृष्ण-काला मन रविकर ||

Thursday 18 February 2016

गूँथ स्वयं को मातु, बनाओ तुम तो रोटी-


रोटी सा बेला बदन, अलबेला उत्साह |
दो बेला हर दिन सिके, किन्तु नहीं परवाह |

किन्तु नहीं परवाह, सभी की भूख मिटाती |
पर बच्चे बेलाग, अकेले मर-खप जाती |

कर रविकर को माफ़, हुई यह संतति खोटी |
गूँथ स्वयं को मातु, बनाओ तुम तो रोटी ||


Monday 15 February 2016

नमन हे अविनाश वाचस्पति-

अविनाश वाचस्‍पति




अरसा से बीमार तन, पर मन के मजबूत।
रहे पुरोधा व्यंग्य के, सरस्वती के पूत। 
सरस्वती के पूत, पुरानी मुलाकात थी । 
तब भी थे बीमार, किन्तु दिल खोल बात की।
रविकर करे प्रणाम, पुष्प श्रद्धांजलि बरसा।
नहीं सके जग भूल, लगेगा लंबा अरसा।।
(2) 
ब्लॉग जगत में आपसे, याद हमे मुठभेड़।
व्यंग्य वाण से आपने, दिया जरा सा छेड़।
दिया जरा सा छेड़, बात का बना बतंगड़।
धन्य मित्र संतोष, नहीं होने दी गड़बड़।
हे वाचस्पति मित्र, रहो तुम खुश जन्नत में।
याद करेंगे लोग, हमेशा ब्लॉग जगत में।।
(३)
हे पुण्यात्मा अलविदा, जिंदादिल इन्सान।
वाचस्पति अविनाश का, हुआ आज अवसान।
हुआ आज अवसान, दुखी दिल्ली कलकत्ता।
साहित्यकार उदास, ख़ुशी ऊपर अलबत्ता।
कुल साहित्यिक कृति, करेगा कौन खात्मा।
यहाँ सदा जीवंत, रहोगे हे पुण्यात्मा।।


(1)

Tuesday 2 February 2016

अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता

विवेचना विस्तृत करे, हिन्दु सनातन धर्म |
अणिमा महिमा सहित हैं, अष्ट सिद्धियां कर्म |
अष्ट सिद्धियां कर्म, प्राप्तिका भारी गरिमा | 
है प्रकाम्य वैशित्व, बहुत ही हलकी लघिमा |
फिर अंतर्मितित्व,  सिद्धि रविकर आलेखन |
अंतिम है ईशित्व,  यही सम्पूर्ण विवेचन ||
(१)
हनुमत अणिमा सिद्धि से, सूक्ष्म रूप लें धार । 
सीता के दर्शन करें, दिया लंकिनी तार ।।  

(२)
हनुमत महिमा सिद्धि से, करें बदन विस्तार। 
सुरसा संकट से तभी, पाते झटपट पार ॥ 

(३)
हनुमत लघिमा सिद्धि से, करें समंदर पार । 
लाकर के संजीवनी, करवाते उपचार ॥ 

(४)
बजरंगी ईशित्व से, ले हर सत्ता जान । 
करते भ्रमण त्रिलोक में, सीता का वरदान ॥

(५)
बजरंगी वैशित्व से, अजर अमर अविनाश । 
युगों युगों से कर रहे, अवधपुरी में वास॥ 

(६)
वे प्रकाम्य सी सिद्धि से, धरते रूप अनेक ।  
 उनका ब्राह्मण रूप था, उनमे से ही एक ॥ 

(७)
बजरंगी की प्राप्तिका, कुछ भी सके बनाय। 
रावण के दरबार में, ऊँचे बैठें जाय ।। 

(८)
यह अंतर्मितित्व झट, जाने जीव स्वभाव । 
कालनेमि मारा गया, असफल उसका दांव ॥