Thursday 30 June 2011

तुम्हारे सहारे |

गुज़र से   गए दर्दो-एहसास   सारे, तुम्हारे सहारे |
गुजरने लगे रात-दिन फिर हमारे, तुम्हारे सहारे ||
उड़ा न सके राख,
दिल के जले की,
बवंडर  नकारे |

कोई ज्वार-भांटा
              न आया सदी से
           
              समंदर किनारे |

हारे को ' रविकर' 
कि जीता वही
जो सिकंदर पुकारे |

चूँ-चूँ ने  चोंचों से
चुन-चुन के फेंके,
जो जलते अंगारे |

              धड़कने लगा दिल,

              न हिम्मत ये हारे

              न तुमको बिसारे ||
गुजरने लगे रात-दिन फिर हमारे, तुम्हारे सहारे |
गुज़र से गए दर्दो-एहसास सारे,   तुम्हारे सहारे | |

*      *          *          *           *          *     *

अपने आशिक की मैंने

इक तश्वीर बनाई   है ||

जरा  टेढ़ी-मेढ़ी आई है |

पहली में पगड़ी दिखाई है |

दूजी में लुंगी पहनाई है |

तीजी की ड्रेस काली है |

चौथी भोली-भाली हैं --

कुआरें-पन की लाली है |

अगला एक सवाली है ||

जिसका भेजा खाली है ||

एक तस्वीर में चंदा  है 

तो दूसरी में बिहारी बन्दा है ||  


पर तू है कौन ----
ये तो बता --
मैं---
मैं हूँ देश की सत्ता ||

Monday 27 June 2011

शहीद का प्रलाप -विलाप

पंजाब एवं  बंग आगे,  कट चुके हैं  अंग आगे|
लड़े  बहुतै  जंग  आगे,  और  होंगे  तंग  आगे|
हर गली तो बंद आगे, बोलिए, है क्या उपाय ??
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !

सर्दियाँ ढलती  हुई हैं,  चोटियाँ  गलती हुई हैं |
गर्मियां  बढती हुई हैं,  वादियाँ  जलती हुई हैं |
गोलियां चलती हुई हैं, हर तरफ आतंक छाये --
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !

सब दिशाएँ  लड़ रही हैं,   मूर्खताएं  बढ़ रही हैं 
|

नियत नीति को बिगाड़े, भ्रष्टता भी समय ताड़े |
विषमतायें नित उभारे, खेत  को  ही मेड खाए |
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !

 मंदिरों में मकड़ जाला,  हर पुजारी  चतुर लाला | 
 भक्त की बुद्धि पे ताला,  *गौर  बनता  दान  काला |  *सोना
 जापते  रुद्राक्ष  माला,   बस  पराया  माल  आए--
 व्यर्थ हमने सिर कटाए,  बहुत ही अफ़सोस, हाय !

हम फिरंगी से  लड़े  थे  , नजरबंदी  से  लड़े   थे |
बालिकाएं मिट रही हैं , गली-घर में  लुट रही हैं  |
होलिका बचकर निकलती, जान से प्रह्लाद जाये --
व्यर्थ हमने सिर कटाए,  बहुत ही अफ़सोस, हाय !

बेबस, गरीबी रो रही है, भूख, प्यासी सो रही है  |
युवा पहले से पढ़ा पर , ज्ञान  माथे  पर चढ़ाकर |   
वर्ग  खुद  आगे  बढ़ा  पर ,  खो चुका संवेदनाएं |
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !

है  दोस्तों से यूँ घिरा,   न पा सका उलझा सिरा |
पी रहा वो मस्त मदिरा, यादकर के  सिर-फिरा |

गिर गया कहकर गिरा,   भाड़  में  ये  देश जाए|
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय ! 


त्याग जीवन के सुखों को,  भूल  माता  के  दुखों को |
प्रेम-यौवन से बिमुख हो, मातृभू हो स्वतन्त्र-सुख हो |

क्रान्ति की  लौ  थे  जलाए,  गीत  आजादी  के  गाये |
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय ! 

Sunday 26 June 2011

रिश्ते सहज बनेंगे, लगा लेप मरहम के |

   (मेरी-टिप्पणी ब्लाग  पर ) आत्‍म-चिंतन
इक पहाड़ सा लगने लगता उन रिश्तों का बोझ |
धीर-धीरे  रहे  बिगड़ते,  रहे  नहीं  जब  *सोझ ||         *सरल 


जिसकी बुद्धि जितनी पैनी, उस पर उतना  भार |
करे जरुरी  चिंतन  दिल से,  सारे  बोझ  उतार ||

असहज भावों पर रविकर, वो करें नियंत्रण जमके | 
फिर से रिश्ते सहज बनेंगे, लगा लेप मरहम के ||

रिश्तों   की   पूंजी  बड़ी , हर-पल संयम *वर्त |     *व्यवहार कर  
पूर्ण-वृत्त   पेटक  रहे ,  असली  सुख   *संवर्त ||     *इकठ्ठा
*                   *               *            *              




Saturday 25 June 2011

मनमे अतीत की याद लिए फिरते है

निज अंतर में उन्माद लिए फिरते हैं 

उन्मादों में अवसाद लिए फिरते हैं

अंदर ही अन्दर झुलस रही है चाहें
मनमे अतीत की याद लिए फिरते है
               बेकस का कोमल हृदय जला करता है
              निशदिन उनका कृष-गात धुला करता है
               दुखों    की   नाव    बनाये  नाविक -
               दुर्दिन  सागर  पर  किया  करता है

औसत से दुगुना भार लिए फिरते हैं
संग में कितनों का प्यार लिए फिरते हैं
यदि किसी भिखारी ने उनसे कुछ माँगा
भाषण का शिष्ट -आचार लिए फिरते हैं

            जो सुरा-सुंदरी पान किया करते हैं
           'कल्याण' 'सोमरस' नाम दिया करते हैं
           चाहे कितना भी चीखे-चिल्लाये जनता
           वे कुर्सी-कृष्ण का ध्यान किया करते हैं

विविध दोहे

दोहा-खोर

स्वतन्त्र - दोहे

Thursday 23 June 2011

कोख नोचते कुक्कुर-चीते -

           शोक-वाटिका की ऐ सीते !
           राम-लखन के तरकश रीते ||
जगह-जगह जंगल-ज्वाला , उठे धुआँ काला-काला|
प्रर्यावरण - प्रदूषण  ने, खर - दूषण  प्रतिपल  पाला || 
          कुम्भकरण-रावण जीते - 
          राम-लखन के तरकश रीते||
नदियों में मिलते नाले, मानव-मळ मुर्दे डाले |
'विकसित' की आपाधापी, बुद्धि पर लगते ताले||
          भाष्य बांचते भगवत-गीते -
         राम-लखन के तरकश रीते||
पनपे हरण - मरण  उद्योग, योग - भोग - संयोग - रोग |
काम-क्रोध-मद-लोभ समेटे, भव-सागर में भटके लोग ||
          मनु-नौका में लगा पलीते - 
         राम-लखन के तरकश रीते||
राग - द्वेष - ईर्ष्या  फैले,  हो  रहे  आज  रिश्ते  मैले |
पशुता भी चिल्लाये-चीखे, मानवता का दिल दहले ||
         रक्त-बीज का रक्त न पीते -
         राम-लखन के तरकश रीते||
राह - राह  'रविकर' रमता, मरी - मरी मिलती ममता |
जगह-जगह जल्लाद जुनूनी, भ्रूण चूर्ण कर न थमता ||
         कोख नोचते कुक्कुर-चीते - 
        राम-लखन के तरकश रीते ||
 &          &          &          &
 "भारत के भावी प्रधानमन्त्री"  ब्लॉग पर मेरी टिप्पणी

युद्ध  हो  या  बाजार
फूटते-दगते बम में भी |
मौत की मौजूदगी और
निकलते दम में भी ||
गलते ग्लेशियर और
जलते मौसम में भी ||
हृदय-पटल पर छपती फोटो
ख़ुशी में और गम में भी  ||


जरुर देंखें ये खून के कतरे --

खून के वे आखिरी कतरे चुए

12 जुलाई 2011 को 25 वाँ मुर्गा कटेगा

ZEAL की पोस्ट पर जोंक

फेंक देते एक पत्थर
शान्त से ठहरे जलधि में-
आराम से फिर जल-तरंगों का---
मजा लेते रहें |
मेंढक-मछलियाँ-जोंक-घोंघे
आ गए ऊपर सतह पर---
आस्था पर फिर जलधि  के
व्यक्तव्य वे  देते रहें ||
अस्तित्व की अपनी लड़ाई
जीव खुद लड़ते  यहाँ --
मझधार से तट की तरफ
वे नाव-निज  खेते रहे |
चाँद-सूरज-आसमान-
तारे-धरा पर आस्था
विश्वास की झोली  उठाये
जीवन नया सेते रहें || 
 *         *          *           * 
मरने का डर |
अब कम हो गया है |
बस  जरा सा आगे--
ये गम हो गया है ||
*         *          *            *
दु:शासन के --
उड़ेंगे परखच्चे --
मरेंगे फिर--
धृत-राष्ट्र के बच्चे ||
*          *           *           *
तुमने ही तो --
दो बरस पहले 
भेजी थी 
अनाम पाती |
संभाल कर 
रखनी थी
वो थाती | 
पर मैं तो था
दीवाना उनका |
कल, हो गया है 
निकाह जिनका--






 

Tuesday 21 June 2011

अंधेर है,अंधेर है

इक्जाम की आदत गई, इकजाम का अब फेर है |
उस समय था काम  पढना, अब, काम ही हरबेर है |
अंधेर है, अंधेर है ||

हर अंक की खातिर पढ़े, हर जंग में जाकर लड़े |
अब अंक में मदहोश हैं, बस जंग-लगना  देर है |                   
अंधेर है, अंधेर है ||     

थे सभी काबिल बड़े, होकर मगर काहिल पड़े |
ज्ञान का अवसान है, अपनी गली का शेर है |
अंधेर है, अंधेर है ||

न श्रेष्ठता की जानकारी, वरिष्ठ जन पर पड़े भारी |
जिंदगी  की  समझदारी,  में  बहुत  ही  देर  है |
अंधेर है, अंधेर है ||

Monday 20 June 2011

जीवन-यात्रा : माताजी की जय

समस्या-पूर्ति  मंच  का  आभार | Theory  पढने के बाद
Practical  कर रहा हूँ -- गुरुजनों का आशीर्वाद चाहिए --

मेरा विषय ही सबसे बड़ी समस्या है | जिसे टाल पाना 
नामुमकिन -- निबटना ही पड़ता है, वो भी तुरंत ||
                      (१) 
रक्त से अपने सींचकर, हड्डी दिहिन गलाय |
माँ के दर्शन सर्वप्रथम, मृत्य-लोक में आय ||

पाली - पोसी  प्राण जस, माता सदा सहाय |
ढाई किलो  का जीव यह, सत्तर का हो जय ||
                  "खुड्डी"
माँ के  पैरों का  बना, सर्वोत्तम  शौचालय |
हाथ लगाए बिन हुआ, माताजी  की जय ||

आँखे टिकने लग पड़ी, पापा को पहचान |
उनके कपड़ों का किया कई बार नुक्सान ||

दीदी   मेरी   ले  गई,  बाहर   रही  घुमाय |
मुश्किल मेरे पेट की, उसे समझ न आय ||

पैंजनिया पैरों पड़ी, ठुमुक-ठुमुक खनकाय |
सारी धरती एक सी, रविकर हमें दिखाय ||
                     
दो ईंटों  को  पास  रख, ऐसा दिया सजाय |
बैठे  उटकुरुवा  वहाँ,  असली  खुड्डी पाय ||
                    "खुद-की"
मामा के घर था गया, छुक-छुक गाडी बैठ |
आपन हाथ लगाय ले, मामी  बोली   ऐंठ ||

लौटत में  फिर हो गया, रविकर पेट ख़राब |
मीठा कम नमकीन जल, पिए बहुत से डाब ||

कई  दिनों  के  बाद  में, रुके  थे  मेरे  दस्त |
करते करते  था  हुआ,  बुरी तरह से पस्त ||
                     
फूफा के घर शहर में, मुश्किल पड़ी अजीब |
आफत में थी जान जब, नाली दिखी करीब ||
                     "टट्टी"
अगले दिन फुफ्फी कही, घर की टट्टी देख |
उधर  कमाने के लिए,   आती  काकी  नेक ||

भरता  कोई  है  इधर , करता  कोई  और |
चार- दिनन के बाद ही, छोड़ चले वो ठौर ||

रिश्तों की  पूंजी  जमा,  मनुआ  धीरे  खर्च | 
एक-एक को ध्यान से, ख़ुशी-ख़ुशी  संवर्त ||
                    "मैदान"
बाबा की आँखे  हुईं, थोड़ी  और ख़राब |
मुझको ड्यूटी दे हटे,  मेरे  भाई -साब ||

सुबह-सुबह उठकर गया, बाबा के संग खेत |
नितक्रिया उस खेत को,  उपजाऊ कर देत ||

अब आदत पड़ने लगी, घर से बाहर जाय |
दुनियादारी ध्यान से,  बाबा  रहे  सिखाय ||

सौ तक की गिनती हुई, ए बी सी  डी याद |
वर्णमाला भी रट लिया, चार माह के बाद ||

गलती लेकिन हो गई, लगा मुझे इक रोज |
बगुली लेकर हाथ में,  रहे  मौलवी  खोज ||
                     
पाँच साल का हो गया,  कपडे लेता डाल |
बैठे-ठाले करे नित, घर  में  नए  बवाल ||

भैया   कक्षा   पाँच  में,   मेरी  कक्षा  एक |
अमरूदों  के  बाग़  में, लिए  गुरूजी  देख ||

हुई  सुतैया बड़न  की, कांप रहे  थे गात |
मुर्गे की लख दुर्दशा , समझा सारी बात ||

देख भयंकर दृश्य ये,  होने लगी मरोड़ |
बड़े-दोस्त के साथ में गए तलौआ दौड़ ||
                   "तालाब"
पर पानी के पास में, ठिठके  मेरे  पैर |
मुर्गे को छुट्टी मिली,  लेने पहुँचा खैर||

भैया बोले बोल  क्या,  बोलेगा घर बात |
शौचा दो पहले मुझे, मेरी क्या औकात ||
                 
एक साल  बीता गए,   भैया   बड़-स्कूल |
अपने पैरों फाँकता , इधर-उधर की धूल ||

स्वावलम्बी मै हो चला, दोस्त बने दो-चार |
खेलों  में  करते  मजा,  बड़ा मस्त व्यवहार ||

एक बार तालाब  में,  फिसला  मेरा  पैर |
मित्र खींच लाया मगर, कुशलपूर्वक तैर ||

बाबा के आशीष  से,  यह बच्चा  हुशियार |
दिन दूनी बढ़ता गया, गुरु-जनों का प्यार || 

मिडिल किया था पास तब, पास नहीं स्कूल |
दूर साइकिल  से  चला,   सीखे  ट्रैफिक रुल ||

दसवी  कक्षा  में  लगा, सेन्टर  काफी  दूर  |
घर से बाहर प्रथमतः ,  रहने को  मजबूर ||
                    "स्वावलंबन"
नहर  नदी  तालाब  में, निपटे  बार हजार |
गए अयोध्या फिर पढ़न, होकर दसवीं पार || 

इन्टर   पढने   के   लिए,   पहुंचे   फैजाबाद |
प्रभु-कृपा  से  हो  गया, गुरु  से  इक  संवाद ||

जीवन का क्या लक्ष्य है, मन में  करो विचार |
छोटी -  छोटी   मंजिलें,   करते  जाओ  पार ||

सपने  खुब  देखो  मगर, रहे  हकीकत  मूल |
उनको  पाने  के  लिए,  करो न लेकिन भूल || 

सुबह-सुबह की क्लास में, हुई एक दिन देर || 
अगले दिन फिर आ गया, जल्दी बड़े सवेर ||

शौचालय  ढूंढा  उधर,  देखा   बड़का   हाल |
अरे ! निबटने के लिए, जी का सब जंजाल ||

लगा समझने में समय, पर सुविधा भरपूर |
काकी को फुरसत मिली,  हुई समस्या दूर ||
 जारी है 

"कीट निकम्मे" पर की टिप्पणी

शांत  चित्त  श्रीमान में,  देखी पहली रीस |
कागद पर परगट हुई, रही सभी को टीस |
रही सभी को टीस, सड़े न अगला खम्भा
लोकतंत्र की चमक, चढ़ेगा शुद्ध मुलम्मा |
कह रविकर गुरुदेव, करें न इकदम चिंता ||
रहे देश आबाद, जगे  जब  प्यारी जनता || 

Saturday 18 June 2011

एक चितवन का बचा है, फासला बस बीच अपने

गर्व रखकर ताक पर, अब आस्मां की ओर ताको |
उन सितारों में लिखा है  नाम दिलवर का  तुम्हारे ||
दुश्मनी  यूँ  ही  अगर, तुमने  निभाया  आस्मां से
नीचे  धकेलेगा  धरा  पर,  आपके  महबूब  सारे ||  

और मकतूलों की  लाइन,  सामने लगनी शुरू | 
तेरी मुहब्बत के सताए, विश्व-मित्रा लव गुरु  ||
इस कदर बदनाम होगी, चाह करके फिर कभी |
ले  सको  न  हाथ खंज़र,  दम्भ मर जाए तभी ||

इसलिए चुपचाप  मेरी  इल्तजा  तुम  मान जाओ |
आस्मां दिलवर बिराजे, सिर तनिक ऊपर उठाओ ||
एक चितवन का बचा है, फासला  बस  बीच अपने |
फैसला कर, फासला तो खुद-ब-खुद ही, लगा नपने | |

कांगू मच्छर और भांजू मक्खी : आरोप-प्रत्यारोप

Wednesday 15 June 2011

छोड़ के अपने गाँव

जिभ्या के बकवाद से, भड़के सारे दाँत |
मँहगाई हो बेलगाम, छोटी करती आँत || 

आँखे ताकें रोटियां, जीभी पूछे  जात |
दाँतो  में  दंगा  हुआ, टूटी  दायीं  पाँत ||

मतनी  कोदौं  खाय  के, माथा  घूमें जोर |
बेहोशी में जो  पड़े, चल उनको झकझोर ||

हाथों के सन्ताप से, बिगड़ गए  शुभ काम |
मजदूरी   भारी  पड़ी,  पड़े   चुकाने   दाम ||

पाँव भटकने लग पड़े, रोजी  में भटकाव |
चले कमाई के लिये, छोड़ के अपने गाँव ||
रक्त-कोष की पहरेदारी

Friday 10 June 2011

आँखे तनिक भिगोनी हैं

                (१)
छत्तीसगढ़  की  छोडो  कमान  |
जा रही पुलिस कर्मियों की जान |
अन्यथा, आज  दिल्ली से मांगो 
पुलिस-कमिश्नर  सह  जवान || 
                 (२)
सुख-दुःख के अनुभव की खातिर 
 है  जीवन   जैसे  बहुत जरुरी  ||
वैसे, "काले-धन" की खातिर     --
लेनी  चोरों  की  मन्जूरी  || 

                (३)
सोनी   अपनी   सोणी   है |
शकल  जरा  सी  रोनी  है |
दिल्ली के दंगल पर किन्तु--
आँखे तनिक भिगोनी हैं ||
       
                         (४)
राजा हो या रोजी हो, मारन हो या मोझी हो |
कामनवेल्थ या देशी खेल, टू-जी हो या फौजी हो----
लगा रखा था ताला जी,  बहुतै बड़ा घुटाला  जी --
हुआ देश मतवाला जी,  बाबा जँग सँभाला जी ||  

Wednesday 8 June 2011

बेटे को पढ़ने दो |

* घट रही है रोटियां घटती रहें---गेहूं  को सड़ने  दो |
* बँट रही हैं बोटियाँ बटती रहें--लोभी को लड़ने  दो |

* गल  रही हैं चोटियाँ गलती रहें---आरोही चढ़ने दो | 
* मिट  रही हैं बेटियां मिटती रहे---बेटे को पढ़ने दो |

* घुट रही है बच्चियां घुटती रहें-- बर्तन को मलने दो ||
* लग रही हैं बंदिशें लगती रहें--- दौलत को बढ़ने दो |
 
* पिट रही हैं गोटियाँ पिटती रहें---रानी को चलने दो | 
* मिट रही हैं हसरतें मिटती रहें--जीवन को मरने दो ||



Tuesday 7 June 2011

दिल्ली के पुलिस-गन, चलो झारखण्ड वन

सामने समर्थ जो, खखोरना व्यर्थ तो |
जो शक्तिहीन  हो,  दुखी हो दींन  हो  ||
केवल उस पर भारी है, पुलिस नहीं बीमारी है ||

वृद्ध हो, बाल हों,  नारियां बेहाल हों |
पब्लिक निर्दोष थी, बिल्कुल मद्होश थी 
नींद से ग्रस्त थी, भूख से पस्त  थी |
अस्त-व्यस्त भागते, अश्रु-गैस दागते--
करती छापामारी है, पुलिस नहीं बीमारी है ||  

गर  बड़ी  वीर है, धीर-व-गंभीर है- 
जोर का जोश है, भीड़ पर रोष है- 
बड़ा मर्दजात है, और औकात है -  
दिल्ली की  पुलिस सुन, सर्विस झारखण्ड चुन-
नक्सल की मुख्तारी है, पुलिस नहीं बीमारी है ||

Monday 6 June 2011

महाढपोरी शंख हैं मन्त्री

क्रान्ति-भूमि के ऊपर दद्दा, काला कौआ बैठा है |
डायलिमा में पड़ा नागरिक, दिल में हौआ बैठा है ||
इ हौआ का  दूर  भगावेक, तम्बू - टंटा  तान लो |
सरकार वार तो करिते रहिहै, मरने की अब ठान लो ||  

दो टूक फैसला करने का अब मौसम आया है भाई |
जो डरा समझ लो मरा, ऐ दद्दा,  चच्चा  बहना  माई ||
साथी  हाथ  बढ़ाना  इसके  पीछे  बड़ा  बवाल  है |
भ्रष्टाचारी ताल ठोंकता , "सोनी-मोहनी"  जाल है ||

चोरन की चण्डाल चौकड़ी चम-चम चांदी काटते |
अपने अंधे  भक्तों  को  भर - पेट  रेवड़ी  बांटते ||
अर्ध - अधूरे  नंगे  लूले  सारे  ढोलम - पोल  हैं |
महानपुन्सक, महानिकम्मा हल्ला करते ढोलहैं ||

एक माँग पर बोले दो लो, मांगो दो तो चार है |
महाढपोरी शंख हैं मन्त्री ,  दो-धारी तलवार है ||
सांपनाथ औ नागनाथ के काटे का बस एक उपाय 
गुनी बुलाना, धुनी रमाना झाड़ू से ही झाड़ा जाय ||



Sunday 5 June 2011

अनशन पर बैठे मेरे प्यारे साथियों---

पी एम को सबसे प्यारा बस |
है टालमटोल सहारा बस |
                             चाक़ू  को  चाक़ू  कहते  हैं |
                             चमचे  को  चमचा कहते  हैं |
                              साथ  सत्य   के  रहते  हैं |
                              सुख दुःख सब मिलकर सहते हैं
                              धारा के संग, न बहते हैं--
                               इतना ही दोष हमारा बस --- 
                            पी एम को सबसे प्यारा बस |
                              है टालमटोल सहारा बस ||
अपनी झपकी से सावधान |
गीदड़ भभकी से सावधान |
उस चमगीदड़ से सावधान |
चमचा गीदड़ से सावधान ||
कौओं के सम्मुख जाता यह  |
पक्षी की जात बताता है |
जब अपने पंख हिलाता यह  |
तब दूध - मलाई   पाता  है --
ढीला कर देता नारा बस -----
पी एम को सबसे प्यारा बस |
है टालमटोल सहारा बस |
                      यह पास हमारे आएगा   |
                      हीं-हीं कर दाँत दिखाएगा |
                      सँगी-साथी कहलायेगा |
                      गलबहियाँ डाल दिखाएगा |
                      नारा दमदार लगाएगा 
                      अपनी औकात बतायेगा--
                      जब चले न कोई चारा बस-----
                     पी एम को सबसे प्यारा बस |
                      है टालमटोल सहारा बस |
                  
                      

Saturday 4 June 2011

बाबा रामदेव का आन्दोलन

                                 (1)
एक बार फिर से पांचाली  इस  परिसर  में गई घसीटी |
एक बार फिर से शकुनी * ने धर्मराज* की गोटी पीटी ||
फिर चौसर की इस बिसात पर मामा अपने कपट खेल से-
सम्मान छीन वनवास भेजता दु:शासन के हेल-मेल से ||
एक बार फिर से धोखे से वरनावत का महल जलाया  
एक बार फिर से कौरव ने अत्याचारी बिगुल बजाया ||
एक बार फिर से दु:शासन*, दुर्योधन* उन्मत्त हुआ है |
एक बार फिर से विराट की गौवों का अपहरण हुआ है ||

धृतराष्ट्र*  के  पूतों  से अब  सावधान    हो  जाओ   तो | 
इन  अंधी  दीवारों  से  मत  सिर  अपने    टकराव  तो  ||
अपने - अपने  हिस्से  का  अब  युद्ध  यहाँ   लड़ना होगा 
सह चुके बहुत कह चुके बहुत अब करना या मरना होगा 
तुम दूर खड़े  मत  देखो  अब, यह  चक्रव्यूह  हम तोड़ेंगे |
कंधे  से  कन्धा  जोड़-जोड़  मनका मनका  अब जोड़ेंगे ||
                                 (2)
भीषण  भीम  गर्जना  पर  कानों  में  रुई  घुसा  लेना | 
न रात-पहर का सपना ये, चुटकी तू  काट, कटा लेना ||
जिन हाथों से  अनसन-कर्ता  पर  है  तूने   छापा  डाला  
जिस काले हृदय से करता सत्ता के संग मुंह  काला  ||

रणभेरी बज चुकी  हाथ  को   जड़   से  हमी  उखाड़ेंगे | 
स्वेद-रक्त   पीने  को   तेरी   छाती    काली    फाड़ेंगे ||
सारी   सत्ता   सारा   वैभव  भोग-विलासी जीवन पर |
थू-थू  सारी  जनता  करती  चुल्लू  भर  पानी में मर ||

सुई नोक भर भूमि न दूंगा कौरव सारे अकड़  पड़े |
मांग हमारी जायज है, मैदान में कहते कृष्ण खड़े ||
चक्र सुदर्शन चमक उठा,ऐ संभल गुरु द्रोही संभाल |
अंतिम  चेतावनी चेत, जनता बन आती महाकाल ||






जय हो

              (१)
बाबा का अनशन 
तोडना था 
लिट्टी-चोखे  से
लेकिन, 
देश की करोड़ों जनता का मन 
और  अनशन 
सरकार ने तोडा 
धोखे  से
 
               (२)
सरकार को रहा था खल ||
कानूनी दांव-पेंच और
कपिल-सिब्बल || 
आंसू-गैस,  डंडे  और
पुलिस-बल ||
दोनों ने मिलकर 
रामलीला मैदान पर 
भक्तों को बुला दिया हल ||
बड़े-बुजुर्ग महिलायें और 
बच्चे 
गए कुचल ||
लगा दी आग, 
शिविर गए जल ||
पर,
जलेगी पापियों की लंका  |
देश गया जाग, 
बजेगा,  सदाचार का डंका  ||
फिलहाल,
जीत गई सरकार |
जय हो भ्रष्टाचार ||