जिभ्या के बकवाद से, भड़के सारे दाँत |
मँहगाई हो बेलगाम, छोटी करती आँत ||
आँखे ताकें रोटियां, जीभी पूछे जात |
दाँतो में दंगा हुआ, टूटी दायीं पाँत ||
मतनी कोदौं खाय के, माथा घूमें जोर |
बेहोशी में जो पड़े, चल उनको झकझोर ||
हाथों के सन्ताप से, बिगड़ गए शुभ काम |
मजदूरी भारी पड़ी, पड़े चुकाने दाम ||
पाँव भटकने लग पड़े, रोजी में भटकाव |
गाँव से शहर की और पलायन को साकार करती रचना -
ReplyDeleteरूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पीव ,
देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव .
नीति परक बातें याद आतीं हैं आपकी दोहावली के आसाद से ।
न जाने किस तरह तो रात भर छप्पड़ बनातें हैं ,
सवेरे ही सवेरे आन्धिआय्न फिर लौट आतीं हैं .(नसीम चसवाल )।
न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढक लेंगें, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए ,
कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिए ,कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए .(दुष्यंत कुमार ).
बहुत-बहुत आभार ||
ReplyDeleteअच्छे दोहे ....
ReplyDeleteआदरणीय रविकर जी बहुत सुन्दर दोहे भाव पूर्ण सार्थक निम्न ने सब कह दिया
ReplyDeleteजिभ्या के बकवाद से, भड़के सारे दाँत |
मँहगाई हो बेलगाम, छोटी करती आँत ||
बधाई
शुक्ल भ्रमर ५