Wednesday 15 June 2011

छोड़ के अपने गाँव

जिभ्या के बकवाद से, भड़के सारे दाँत |
मँहगाई हो बेलगाम, छोटी करती आँत || 

आँखे ताकें रोटियां, जीभी पूछे  जात |
दाँतो  में  दंगा  हुआ, टूटी  दायीं  पाँत ||

मतनी  कोदौं  खाय  के, माथा  घूमें जोर |
बेहोशी में जो  पड़े, चल उनको झकझोर ||

हाथों के सन्ताप से, बिगड़ गए  शुभ काम |
मजदूरी   भारी  पड़ी,  पड़े   चुकाने   दाम ||

पाँव भटकने लग पड़े, रोजी  में भटकाव |
चले कमाई के लिये, छोड़ के अपने गाँव ||
रक्त-कोष की पहरेदारी

4 comments:

  1. गाँव से शहर की और पलायन को साकार करती रचना -
    रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पीव ,
    देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव .
    नीति परक बातें याद आतीं हैं आपकी दोहावली के आसाद से ।
    न जाने किस तरह तो रात भर छप्पड़ बनातें हैं ,
    सवेरे ही सवेरे आन्धिआय्न फिर लौट आतीं हैं .(नसीम चसवाल )।
    न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढक लेंगें, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए ,
    कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिए ,कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए .(दुष्यंत कुमार ).

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  2. बहुत-बहुत आभार ||

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  3. अच्छे दोहे ....

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  4. आदरणीय रविकर जी बहुत सुन्दर दोहे भाव पूर्ण सार्थक निम्न ने सब कह दिया

    जिभ्या के बकवाद से, भड़के सारे दाँत |
    मँहगाई हो बेलगाम, छोटी करती आँत ||
    बधाई
    शुक्ल भ्रमर ५

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