फेंक देते एक पत्थर
शान्त से ठहरे जलधि में-
आराम से फिर जल-तरंगों का---
मजा लेते रहें |
मेंढक-मछलियाँ-जोंक-घोंघे
आ गए ऊपर सतह पर---
आस्था पर फिर जलधि के
व्यक्तव्य वे देते रहें ||
शान्त से ठहरे जलधि में-
आराम से फिर जल-तरंगों का---
मजा लेते रहें |
मेंढक-मछलियाँ-जोंक-घोंघे
आ गए ऊपर सतह पर---
आस्था पर फिर जलधि के
व्यक्तव्य वे देते रहें ||
अस्तित्व की अपनी लड़ाई
जीव खुद लड़ते यहाँ --
मझधार से तट की तरफ
वे नाव-निज खेते रहे |
चाँद-सूरज-आसमान-
तारे-धरा पर आस्था
विश्वास की झोली उठाये
जीवन नया सेते रहें ||
* * * *
मरने का डर |
* * * *
दु:शासन के --
वे नाव-निज खेते रहे |
चाँद-सूरज-आसमान-
तारे-धरा पर आस्था
विश्वास की झोली उठाये
जीवन नया सेते रहें ||
* * * *
मरने का डर |
अब कम हो गया है |
बस जरा सा आगे--
ये गम हो गया है ||* * * *
दु:शासन के --
उड़ेंगे परखच्चे --
मरेंगे फिर--
धृत-राष्ट्र के बच्चे ||
* * * *
तुमने ही तो --
दो बरस पहले
भेजी थी
अनाम पाती |
संभाल कर
रखनी थी
वो थाती |
पर मैं तो था
दीवाना उनका |
कल, हो गया है
निकाह जिनका--
तुमने ही तो --
दो बरस पहले
भेजी थी
अनाम पाती |
संभाल कर
रखनी थी
वो थाती |
पर मैं तो था
दीवाना उनका |
कल, हो गया है
निकाह जिनका--
:) अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी ही तर्ज में... आपके लेखन से प्रभावित होकर...
ReplyDelete__________________
रविकर जी का लेखन पैना.
शब्दों की ले करके सैना.
तारकनाथ निशाचर दल पर
टूट पड़े, भागी तब रैना.
बेहतरीन ।
ReplyDelete@ प्रतुल वशिष्ठ said...
ReplyDeleteआपकी ही तर्ज में... आपके लेखन से प्रभावित होकर...
(आनन्दमयी हँसी)
@ सदा said...
बेहतरीन ।
सदा आभार आपका ||