सार्थक और सामयिक!
कविवर! कैसे मैं कहूँ, अपने मन के हाल.कालिदास ज्यूँ काटते, बैठे अपनी डाल. बैठे अपनी डाल गिरन से ना घबराते.पंडित पत्नी डांटती हमें आते-जाते.सभी व्यंग्य कटाक्ष, घुसे रहते मन वीवर.नाप-तोल कर बोलूँ, मजबूरी में कविवर.रविकर जी, स्पष्ट कहना और लिखना विवशता बन गया है... लिखेंगे कभी साफ़-साफ़... बेख़ौफ़ होकर.
गजब की शब्द संरचना, सन्नाट संवाद...
सार्थक और सामयिक!
ReplyDeleteकविवर! कैसे मैं कहूँ, अपने मन के हाल.
ReplyDeleteकालिदास ज्यूँ काटते, बैठे अपनी डाल.
बैठे अपनी डाल गिरन से ना घबराते.
पंडित पत्नी डांटती हमें आते-जाते.
सभी व्यंग्य कटाक्ष, घुसे रहते मन वीवर.
नाप-तोल कर बोलूँ, मजबूरी में कविवर.
रविकर जी, स्पष्ट कहना और लिखना विवशता बन गया है... लिखेंगे कभी साफ़-साफ़... बेख़ौफ़ होकर.
गजब की शब्द संरचना, सन्नाट संवाद...
ReplyDelete