रिश्ते तो रिसते रहे, बने आज नासूर |
स्वार्थ सिद्ध जिनके हुवे, जा बैठे वे दूर |
जा बैठे वे दूर, स्वयं को यूँ समझाया |
वह तो रविकर फर्ज, फर्ज भरपूर निभाया |
परम्परागत कर्ज, चुकाता अब भी किश्तें |
अश्रु-अर्ध्य हर रोज, भूल ना पाता रिश्ते ||
स्वार्थ सिद्ध जिनके हुवे, जा बैठे वे दूर |
जा बैठे वे दूर, स्वयं को यूँ समझाया |
वह तो रविकर फर्ज, फर्ज भरपूर निभाया |
परम्परागत कर्ज, चुकाता अब भी किश्तें |
अश्रु-अर्ध्य हर रोज, भूल ना पाता रिश्ते ||
गए दूर अति दूर, स्वयं को यूँ समझाया |
ReplyDeleteवह तो अपना फर्ज, फर्ज था खूब निभाया |
..फ़र्ज़ समझकर ही निभाना अच्छा रिश्तों को वर्ना दुखते है उम्र भर ...
बहुत सुन्दर
सटीक ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (01-02-2016) को "छद्म आधुनिकता" (चर्चा अंक-2239) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
रिश्ते सूख जाते हैं इसलिए फ़र्ज़ समझ के भूलना ही अच्छा है ...
ReplyDeleteअच्छी सीख है इस कुंडली में ...