Monday, 25 January 2016

इसीलिए रे मूर्ख, अरे माटी के पुतले-

उबले पानी क्रोध से, उड़े देह से भाप। 
कहाँ वास्तविकता दिखे, केवल व्यर्थ-प्रलाप | 

केवल व्यर्थ-प्रलाप, आग पानी में लागे |
पानी पानी होय, चेतना रविकर जागे। 

इसीलिए रे मूर्ख, अरे माटी के पुतले। 
नहीं उस समय झाँक, जिस समय पानी उबले ||

3 comments:

  1. हा हा ।
    ठंडा पानी लगा पूरे मुँह में जब पानी उबले
    देख जहाँ मन होवे चेहरे को बना कर उजले । :)


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  2. आपने लिखा...
    और हमने पढ़ा...
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 27/01/2016 को...
    पांच लिंकों का आनंद पर लिंक की जा रही है...
    आप भी आयीेगा...
    आपने लिखा...
    और हमने पढ़ा...
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    दिनांक 27/01/2016 को...
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  3. बढ़िया । बहुत खूब ।

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