Monday, 18 July 2011

स्लीपर-सेल : घनाक्षरी

शक्ल  सूरत  एक  सी, हाथ  पैर  एक  जैसे
नाक  कान  आँख  मुंह, एक  से  दिखात हैं |

भीड़ - भाड़  हाट  चौक,  घर  द्वार  रेस्टोरेंट
आस   पास   सोये  पड़े,  बड़े   इफरात   हैं |

कठपुतली   बन  के ,  विभीषण  से  तनके 
यहाँ  वहाँ  चाहे  जहाँ , थैला   पहुँचात   हैं |

दस - बीस  मारकर,  भीड़  बीच  घुस  जात,
आतंकी  स्लीपर  सेल,  यही  तो   कहात  हैं ||


और अंत में एक दोहा,
उम्मीद का--

चर्चित चेहरे देश के, करते है उम्मीद |
आज मुहर्रम हो गई, कल होवेगी ईद ||


चिदंबरम उवाच !
 इकतिस महिना न हुआ, माँ मुम्बा विस्फोट |
 तीन  फटे  तेइस  मरे,  व्यर्थ  निकाले  खोट ||

 जनता  पूछे--
 जनता  पूछे देश  में, कितने महिने और |
गृह-मंत्री जी बोलिए, मिलिहै हमका ठौर ||


13 comments:

  1. आतंक! डरिए रविकर जी। डरिए। अब ब्लागों पर भी आ चुके हैं ये।

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  2. कहा बहुत सही,
    होता है यही।

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  3. बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  4. बहुत सटीक और सामयिक.

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  5. beautifully said
    excellent

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  6. रविकर जी बहुत अच्छी प्रस्तुति .

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  7. गुप्ता जी व्यस्तता के वजह से कुछ दुरी थी ! आज समय कुछ मिला तो देखा और सभी पोस्ट को पढ़ा ! चर्चा मंच पर न जा सका क्यों की शुक्रवार को सिकंदारावाद चला गया था ! आज लौटा हूँ ! आप की रचनाये अजब और गजब सी होती है ! सभी से अलग और समसामयिक ! बहुत बहुत बधाई !

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  8. ekdam samyik rachna......behad sahi chitran.

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  9. ये भी पा गए.....

    और आप छा गये गुरु.

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  10. बेहतरीन दोहे। शुभकामनायें।

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  11. रविकर जी आपका लिखा नित नूतन और सुन्दर लगता है .इस मर्तबा पहले से भी ज्यादा सटीक मिसायल हैं ये दोहे -बूमरांग से वार करतें हैं अपने लक्ष्य पर .

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