सत्ता-सर के घडियालों यह गाँठ बाँध लो,
जन-जेब्रा की दु-लत्ती में बड़ा जोर है |
बदन पे उसके हैं तेरे जुल्मों की पट्टी -
घास-फूस पर जीता वो, तू मांसखोर है ||
तानाशाही से तेरे है तंग " तीसरा"
जीव-जंतु-जग-जंगल-जल पर चले जोर है |
सोच-समझ कर फैलाना अब अपना जबड़ा
तेरे दर पर हुई भयंकर बड़-बटोर है |
पद-प्रहार से सुधरेगा या सिधरेगा तू
प्राणान्तक जुल्मों से व्याकुल पोर-पोर है |
जनता की पीड़ा को इस कविता ने निराले अंदाज में गाया है.
ReplyDeleteजन-जेब्रा की दु-लत्ती में बड़ा जोर है |
ReplyDeleteसत्ता -सर के घडियालों ये गांठ बाँध लो ,
ReplyDeleteजन ज़िब्रा की दुलत्ती में बड़ा जोर है .
फिर भी चला जाए है एक मंद मति बालक खरामा खरामा ,
हाथसे कुछ नहीं हुआ पाद (पद यात्रा क्या कर लेगी ).
पद-प्रहार से सुधरेगा या सिधरेगा तू---सतर्क करती शब्द प्रहार ! बहुत सुन्दर
ReplyDelete@ तानाशाही से तेरे है तंग "तीसरा"
ReplyDeleteजीव-जंतु-जग-जंगल-जल पर चले जोर है
पद-प्रहार से सुधरेगा या सिधरेगा तू
प्राणान्तक जुल्मों से व्याकुल पोर-पोर है ||
तानाशाह कहाँ सुधरते हैं, उन्हें तो सिधारना ही पडता है। सटीक रचना!
हर पाँच साल में असर दिखायी पड़ता है।
ReplyDeleteसोच-समझ कर फैलाना अब अपना जबड़ा
ReplyDeletebeautifully written hope our politicians understand it
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteआप बिल्कुल अलग हट के लिखते हैं।
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