Saturday 9 July 2011

जन-जेब्रा की दु-लत्ती में बड़ा जोर है |

सत्ता-सर  के  घडियालों  यह  गाँठ बाँध लो,
जन-जेब्रा   की   दु-लत्ती   में   बड़ा  जोर है |

बदन  पे  उसके  हैं  तेरे  जुल्मों  की  पट्टी -
घास-फूस  पर  जीता  वो,  तू  मांसखोर है ||

तानाशाही    से    तेरे     है     तंग  " तीसरा"
जीव-जंतु-जग-जंगल-जल पर चले जोर है |

सोच-समझ कर फैलाना अब  अपना जबड़ा
तेरे  दर   पर    हुई   भयंकर  बड़-बटोर  है |

पद-प्रहार से    सुधरेगा   या   सिधरेगा   तू
प्राणान्तक  जुल्मों  से  व्याकुल  पोर-पोर है |

9 comments:

  1. जनता की पीड़ा को इस कविता ने निराले अंदाज में गाया है.

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  2. जन-जेब्रा की दु-लत्ती में बड़ा जोर है |

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  3. सत्ता -सर के घडियालों ये गांठ बाँध लो ,
    जन ज़िब्रा की दुलत्ती में बड़ा जोर है .
    फिर भी चला जाए है एक मंद मति बालक खरामा खरामा ,
    हाथसे कुछ नहीं हुआ पाद (पद यात्रा क्या कर लेगी ).

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  4. पद-प्रहार से सुधरेगा या सिधरेगा तू---सतर्क करती शब्द प्रहार ! बहुत सुन्दर

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  5. @ तानाशाही से तेरे है तंग "तीसरा"
    जीव-जंतु-जग-जंगल-जल पर चले जोर है
    पद-प्रहार से सुधरेगा या सिधरेगा तू
    प्राणान्तक जुल्मों से व्याकुल पोर-पोर है ||

    तानाशाह कहाँ सुधरते हैं, उन्हें तो सिधारना ही पडता है। सटीक रचना!

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  6. हर पाँच साल में असर दिखायी पड़ता है।

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  7. सोच-समझ कर फैलाना अब अपना जबड़ा
    beautifully written hope our politicians understand it

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  8. बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  9. आप बिल्कुल अलग हट के लिखते हैं।

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