चबवाये नाकों चने, लहराए हथियार ।
चनाखार था पास में, देता रविकर डार ।।
चनाखार था पास में, देता रविकर डार ।।
ऐ 'चना, बाजे घना,
होकर पड़ा, थोथा यहाँ |
व्यर्थ है, उत्पत्ति तेरी-
पेट-नीच की, क्षुधा मिटा |
उर्वरा धरती से बनता झाड़
किन्तु, रविकर न चढ़े
किन्तु, रविकर न चढ़े
ज्वार से जलता रहे तू,
बाजरे, बाजार में -
चल पड़ा है आज क्रोधित,
फोड़ने उस भाड़ को
औकात में ही रह, अनोखे,
भाड़ कितने भूज खाया |
आग ठंडी हो चुकी है,
मानता हूँ आज रविकर-
ऐ 'चना अब बाज आ जा,
ऐ 'चना अब बाज आ जा,
दांत का आर्डर गया है |
है पता लोहा नहीं तू,
फिर भी चबाये हैं बहुत से |
थोथे चने पर ऐ चने,
मुंह में नहीं अब लार आती ||
कुंडली
सुशील जी जोशी की टिप्पणी पर
कभी झाड़ पर न चढूं, चना होय या ताड़ |
बड़ा कबाड़ी हूँ सखे, पूरा जमा कबाड़ |
पूरा जमा कबाड़, पुरानी सीढ़ी पायी |
जरा जंग की मार, तनिक उसमे अधमायी |
झाड़-पोंछ कर पेंट, रखा है उसे टांड़ पर |
खा बीबी की झाड़, चढूं न कभी झाड़ पर ||
कुछ टिप्पणियों का सन्दर्भ शायद यह है
अन्दर उबाल,
ReplyDeleteबाहर बवाल ,
नए नहीं सवाल,
चने से मलाल !
...चना बहुत उपयोगी है पर सावधान नहीं रहोगे तो दांत भी टूट सकते हैं.
चने पर गुस्सैल-रचना !
चने की झाड से उतारती रचना
ReplyDeleteनहीं भाई चने पर गुस्सैल रचना नहीं है -
ReplyDeleteदांत कमजोर हैं इसलिए स्वयं पर क्षोभ है-
चना से क्या बैर ??
ज्वार बाजरा भी है-
बड़ी ही रोचक प्रस्तुति..
ReplyDeleteज्वार की पूछ कम है आजकल चने के भाव आसमान पर हैं. पुराने लोग चने खा कर मुक़द्दमे लड़ा करते थे. चने हमने भी खा लिए थे सो 4 साल से मुक़द्दमे भी लड़ रहे हैं.
ReplyDelete5 मुक़द्दमों में से एक की आज तारीख भी है. किस मुक़द्दमे में ?
यहाँ देखिये-
http://ahsaskiparten.blogspot.in/2011/05/andha-qanoon.html
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Deleteइस मन्दी के दौर में, ले मंडी का भाव |
Deleteजींस ख़रीदे जा रहे, किन्तु मुझे न चाव |
किन्तु मुझे न चाव, मुकदमें तुम्हें मुबारक |
हार होय या जीत, जानिये बेहद मारक |
रविकर का संताप, नया दांतों का डाक्टर |
है क्या कहो इलाज, चने जो खाएं डटकर ||
अंकल डाक्टर को क्यूँ खोज रहे हो-
Deleteबढ़िया दन्त मंजन क्यूँ नहीं इस्तेमाल करते -
गन्ना भी चूस सकोगे-
और चने भी -
फिर नहीं चिल्लाना पड़ेगा कि
यह दीवार क्यूँ नहीं टूटती ??
वाह भई रविकर जी बहुत बढिया
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ... चने को ले कर गंभीर बात हास्य में कह दी
ReplyDeletevery nice keep it up
ReplyDeletesuch poems are the life line of hindi blogging and so are the comments on such beautiful poems
I am nominating this poem for gyaan peeth puruskaar
कविता में कोई शब्द या शब्द-चित्र आपत्ति-जनक है, अश्लील है, नारी या धर्म की तौहीन है ?? आप कहें तो आज्ञा-पालन हेतु तत्पर हूँ हमेशा की तरह तुरंत पालन होगी आज्ञा | जिस भाषा का आप इस्तेमाल करते हैं, उसका क्या कोई छुपा अर्थ भी होता है -
ReplyDeleteसमझ नहीं पाता इस रहस्यवाद को -
ज्ञान-पीठ ही क्यों, यदि आपूर्ति बिभाग में परिचय हो तो वहां भी देना-
शायद राशन फ्री हो जाये |
हमेशा राशन-पानी लेकर नहीं दौड़ना पड़ेगा ||
लगातार व्यंगात्मक लहजा शुभ-चिंतकों को भी
रास नहीं आता, मेरे दोस्त ||
लगातार व्यंगात्मक लहजा शुभ-चिंतकों को भी
ReplyDeleteरास नहीं आता, मेरे दोस्त ||
शुभ चिन्तक नियरे राखिये
ब्लोगिंग के झाड पे चढ़ाए
खुद भी रचना रचना चिल्लाए
रविकर से भी कहलाये
आप एक बार फिर अपनी समस्त टिप्पणियों पर गौर फरमाएं |
ReplyDeleteऔर यह भी देखें कि सकारात्मक प्रतिक्रिया आई की नहीं -
खुबसूरत प्रस्तुति |
ReplyDeleteचने के माध्यम से दुश्वारियों का गजब चित्रण |
गौर फरमाए गौर फरमाए
ReplyDeleteअपने ब्लॉग पर आई टिपण्णी
पर रविकर ज़रा गौर फरमाए
और शुभ चिन्तक अपने
ज़रा सोच कर बनाए
सकारात्मक . नकारात्मक
का खेल बरसो से खेला जाता हैं
उम्मीद हैं
आप भी दो चार बार में
जान ही जाये
आभार ||
Deleteआभार
Deleteकाहे का आभार
कितना था भार
जो होगया आभार
अब आभा होगी
भार होगा
तभी तो ब्लॉग
रविकर का साकार होगा
रचना पर रचना
आभार का भार
सब सकार नकार
पोस्ट पर पोस्ट
रच
नयी रोज रचना बना
शुभचिंतक आयेगे
झाड पे चढायेगे
बस
यहाँ उतारने क़ोई नहीं आता हैं
खीच कर एक यही तुम्हे
जमीन पर लायेगे
और उसदिन
रचना यही याद आयेगी
किसी के कहने पर
ReplyDeleteमत आया कर
रविकर मनमौजी रह कर
चने के झाड़ पर
चढ़ जाया कर
खीचने वाले तो
तुझे ताड़ से भी
खींच लायेंगे
झाड़ से गिराने में
ज्यादा चोट तो
कम से कम
ना दे पायेंगे ।
सही कहा हैं सुशील ने
Deleteसु शील जो ठहरे
रचना से ज्यादा
जरुरी हैं रचनात्मक
बस वही बन
अपनी मर्ज़ी से बन
ज्यादा तो नहीं
ReplyDeleteकुछ हिंदी का ज्ञान मै भी रखती हूँ
रे - चना
कभी ये नहीं सुना
जब भी सुना
रे , चना ही सुना
आप भी ज़रा खोजे
रे - चना हैं या रे, चना
गम न कर अब दांत का।
ReplyDeleteया बिन बुलाई मात का।
निकट सुबह है रविकर
जो अंत है हर रात का॥
तकाज़ा है उम्र सात का।
जाना सही दुग्ध दांत का।
कलम ही कवि दन्त है
तो दुख है किस बात का॥
कड़क चना क्या काम का।
और सगा नहीं जो राम का।
कंकरों से यारी क्यों
तूँ राही काव्य-धाम का॥
और सगा नहीं जो राम का।
Deletewell said
सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteजब किसी लंगड़े BACHEY को यह पता चलता है की वो जिन्दगी भर लंगडा रहेगा, तो उसे एक सदमा लगता है, पर फिर वो इसको स्वीकार कर लेता है, अपनी तकदीर मान लेता है. बच्चा बड़ा तो हो गया है पर लंगडा है. अब उसे दूसरो की आलोचना करने और उपहास करने मे आनंद आता है . आप जैसे महान लोग उसे माफ़ कर देते है, ताकि उसे दुःख न हो. हर बच्चा ऐसा नहीं होता . . . .जिसको बचपन मे आप जैसे लोगो का प्यार नहीं मिलता वही ऐसा व्यवहार करते है . . . . बहुत अच्छी रचना जी.
ReplyDelete१९८३ आदर्श कालेज पठानकोट में RSS के OTC का प्रथम वर्ष का
ReplyDelete१९८६ में सरस्वती विद्यामंदिर निराला नगर लखनऊ में द्वितीय वर्ष
१९९६ रेसिम बाग़ नागपुर में तृतीय वर्ष ||
मुबारक .मजा आ गया सर !बहुत बढ़िया रे -चना /रे ,चना ...रह बना ...खाओ चने रहो बने ...
ReplyDeleteकभी झाड़ पर न चढूं, चना होय या ताड़ |
ReplyDeleteबड़ा कबाड़ी हूँ सखे, पूरा जमा कबाड़ |
पूरा जमा कबाड़, पुरानी सीढ़ी पायी |
जरा जंग की मार, तनिक उसमे अधमायी |
झाड़-पोंछ कर पेंट, रखा है उसे टांड़ पर |
खा बीबी की झाड़, चढूं न कभी झाड़ पर ||
आपकी ब्लॉगिंग में आपकी शख्सियत झलकती है.
ReplyDeleteतंज़ करने वाले भी तंज़ सहने की ताक़त नहीं रखते. पढ़े लिखे लोगों की मजलिस में बुरी बातें देखकर एक लंबे अर्से तक ब्लॉग पर कुछ लिखने का जज़्बा ही सर्द पड़ गया था .
ब्लॉगिंग को जुड़ने का ज़रिया बनाया जाए तो अच्छा रहेगा. अपनी बात कहिए और दूसरे की सुनिए.
जब तक नफ़रतें दिल में रहेंगी ज़ुबान से मुहब्बत के फूल खिला ही नहीं सकते.
रे,चना ! में जो आत्मीयता थी वह ऐ, चना में नहीं है.चलिए,ठीक है.अपने रास्ते पर आगे बढ़ो,नकारात्मकता में ज़्यादा न उलझो !
ReplyDeleteचना-चबेना भी नहीं, महँगाई की मार।
ReplyDeleteभारत की सरकार से, गया आदमी हार।।
ये रे चना ऐ चना रचना सब क्या हो रहा है ????लगता है इतिहास जानना पड़ेगा वैसे कुंडली बहुत अच्छी लगी चने की कविता भी समझने की कोशिश कर रही हूँ
ReplyDeleteरविकर जी, यदि मैं आपके स्थान पर होता तो कुछ और लिखता। मानसिक आघात के समय में मैं ऐसा कर भी चुका हूँ :
ReplyDelete"मुझ से तुम घृणा करो चाहे
चाहे अपशब्द कहो जितने
मैं मौन रहूँ, स्वीकार करूँ
तुम दो जो तुमसे सके बने।
मुझ पर तो श्रद्धा बची शेष
बदले में करता वही पेश
छोड़ो अथवा स्वीकार करो
चाहे ममत्व का करो लेश।"
आपकी ह्रदय की पीड़ा शायद रचना जी के अपमान से कहीं अधिक पीड़ान्तक हो। फिर भी दोषी आप ही हैं : जिसके कारण से किसी के ह्रदय को ठेस पहुँचे ... 'ऐसा मेरा आराध्य कवि हो' सोचकर ही कष्ट होता है।
रविकर जी,
आपकी काव्य-प्रतिभा ब्लॉग-जगत की धरोहर है। इसे निरंतर निर्दोष बनाए रखना आपका दायित्व है। इस अकूत प्रतिभा पर कभी ग्रहण न लगे इसलिए इसे कैसे संभालना है - इसके उपाय आपको ही करने हैं। आपने उस सारस्वत प्रतिभा से जो रचना रची है वह (शिल्प) अलंकार की दृष्टि से सर्वोत्तम बेशक हो लेकिन भाव की दृष्टि से अधम बन पड़ी है।
मित्र होने के नाते आपसे हमेशा अपेक्षा रहती है कि आप मेरे दोषों को इंगित करते चलें और मैं आपके। इतना अधिकार आपको देना होगा।
इतना सब कहने के बाद भी शायद मैंने आपके पक्ष को पूरा न जानो हो - इसकी गुंजाइश हो सकती है। फिर भी पहली दृष्टि में जो समझ आया - कह दिया।
मैं आपसे प्रेम करने वाला एक स्नेही पाठक हूँ। यही भाव मेरे उनके प्रति भी हैं जो मुझे एक वर्ग के उन पहलुओं से अवगत कराती हैं जिनसे मैं अनजान हूँ।