रही थी दोस्ती उनसे, गुजारे थे हंसीं-लम्हे
उन्हें हरदम बुरा लगता, कभी जो रास्ता छेंके ||
सदा निर्द्वंद घूमें वे, खुला था आसमां सर पर
धरा पर पैर न पड़ते, मिले आखिर छुरा लेके ||
मुहब्बत को सितम समझे, जरा गंतव्य जो पूंछा-
गंवारा यह नहीं उनको, गए मुक्ती मुझे देके ।।
बसे हर रोम में मेरे, मुकम्मल चित्र जो ढूंढें -
जुबाँ काटे गला काटे, कलेजा काट कर फेंके |।
उड़ें अब मस्त हो हो कर, निकलता रोज का काँटा-
जला श्मशान में आशिक, खड़े खुश हाथ वो सेंके ||
जला श्मशान में आशिक, खड़े खुश हाथ वो सेंके ||
वाह रविकर जी एक अलग सी रचना बहुत शानदार प्रवाह युक्त बहुत पसंद आई
ReplyDeleteसही कहा आपने ,बहुत सुंदर, बधाई......
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति बधाई.
ReplyDeleteये माशूक है न आशिक है ,
ReplyDeleteसिरे के हैं ये कातिल ..
इस रचना का टोन ही अलग है.शानदार !
ReplyDeleteऐसा भी होता है ...
ReplyDeleteसमग्र गत्यात्मक ज्योतिष
आज आशिकी ले कर आये हैं
ReplyDeleteलगा खूबसूरत बनाये हैं
रुलाने के लिये क्या कर दिया
आशिक को ही जलाये हैं !!
उड़ें अब मस्त हो हो कर, निकलता रोज का काँटा-
ReplyDeleteजला श्मशान में आशिक, खड़े खुश हाथ वो सेंके ||
क्या लिखा है आपने ..... जबरदस्त !
क़त्ल करके मेरा
'वो' मुस्कुराते हैं
बताओ जरा
ऐसे कातिल
कब सजा पाते हैं
बहुत ही गहरापन उतरा है शब्दों में।
ReplyDelete...कैसे कैसे लोगों से भरी पडी है यह दुनिया!
ReplyDeleteयही हश्र मोक्ष है बंधु-मस्त रहिये !
ReplyDelete