Tuesday, 17 July 2012

जला श्मशान में आशिक, खड़े खुश हाथ वो सेंके-


रही थी दोस्ती उनसे, गुजारे थे हंसीं-लम्हे
उन्हें हरदम बुरा लगता, कभी जो रास्ता छेंके ||

सदा निर्द्वंद घूमें वे, खुला था आसमां सर पर
धरा पर पैर न पड़ते, मिले आखिर छुरा लेके ||

मुहब्बत को सितम समझे, जरा गंतव्य जो पूंछा-

 गंवारा यह नहीं उनको, गए मुक्ती मुझे देके ।।

बसे हर रोम में मेरे, मुकम्मल चित्र  जो ढूंढें -
जुबाँ काटे गला काटे, कलेजा काट कर फेंके |।

उड़ें अब मस्त हो हो कर, निकलता  रोज का काँटा-
जला श्मशान में आशिक, खड़े खुश हाथ वो सेंके ||

11 comments:

  1. वाह रविकर जी एक अलग सी रचना बहुत शानदार प्रवाह युक्त बहुत पसंद आई

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  2. सही कहा आपने ,बहुत सुंदर, बधाई......

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति बधाई.

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  4. ये माशूक है न आशिक है ,

    सिरे के हैं ये कातिल ..

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  5. इस रचना का टोन ही अलग है.शानदार !

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  6. आज आशिकी ले कर आये हैं
    लगा खूबसूरत बनाये हैं
    रुलाने के लिये क्या कर दिया
    आशिक को ही जलाये हैं !!

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  7. उड़ें अब मस्त हो हो कर, निकलता रोज का काँटा-
    जला श्मशान में आशिक, खड़े खुश हाथ वो सेंके ||

    क्या लिखा है आपने ..... जबरदस्त !

    क़त्ल करके मेरा
    'वो' मुस्कुराते हैं
    बताओ जरा
    ऐसे कातिल
    कब सजा पाते हैं

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  8. बहुत ही गहरापन उतरा है शब्दों में।

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  9. ...कैसे कैसे लोगों से भरी पडी है यह दुनिया!

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  10. यही हश्र मोक्ष है बंधु-मस्त रहिये !

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