व्यर्थ सिंह मरने गया, झूठ अमर वरदान,
दस जनपथ कैलाश से, सिब-बल अंतरध्यान |
इतना रुपया किसने दिया ?
फुदक-फुदक के खुब किया, मारे कई सियार,
सोचा था खुश होयगा, जन - जंगल सरदार |
जिन्हें लाभ वे कहाँ ??
जिन्हें लाभ वे कहाँ ??
साम्यवाद के स्वप्न को, दिया बीच से चीर,
बिगड़ी घडी बनाय दी, पर बिगड़ी तदबीर |
परमाणु समझौता
परमाणु समझौता
अर्गल गर गल जाय तो, खुलते बन्द कपाट,
जब मालिक विपरीत हो, भले काम पर डांट |
हम तो डूबे, तम्हें भी ---
हम तो डूबे, तम्हें भी ---
दुनिया बड़ी कठोर है , एक मुलायम आप,
परहित के बदले मिला, दुर्वासा सा शाप |
मुलायम सा कोई नहीं
खट मुर्गा मरता रहे, अंडा खा सरदार,
पांच साल कर भांगड़ा, जय-जय जय सरकार |
Bahut Sundar likha hai aapne ...
ReplyDeletedekhan me chote lagein, ghav karein gambheer.
sahi pehchana.......
ReplyDeleteआज फ़िर छा गये हो गुरु। बहुत ही अच्छे शब्द।
ReplyDeleteव्यर्थ सिंह मरने गया, झूठ अमर वरदान,
ReplyDeleteदस जनपथ कैलाश से, सिब-बल अंतरध्यान |
रविकर जी आपकी रचनात्मक ऊर्जा इसी तरह सलामत रहे .बहुत सुन्दर समायोजन दोहावली में राजनीति के प्रदूषण पर्व का .बधाई !
राजनीति में प्रदूषण पर्व है ये पर्युषण पर्व नहीं .
कबीरा खडा़ बाज़ार में
हाँ...हाँ...हाँ....मजे दार व्यंग और वह भी सच्ची ! बधाई !
ReplyDeleteआपके तीन-चार ब्लाग एक साथ देख डाले। गहरी अनुभूति के साथ रची गई रचनाओं में व्यंग्य की जो मार है काफी असरकारक है ।
ReplyDeleteदिनेश जी , मुग्ध करती हैं आपकी रचनाएँ।
ReplyDeleteअच्छा है।
ReplyDeleteलाजवाब....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!
ReplyDeleteरविकर जी आपका जवाब नहीं!
बहुत बहुत सही.....
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