Tuesday, 12 February 2013

मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता-6-B

कौशल्या के गर्भ की, कैसे रक्षा होय |
दशरथ चिंता में पड़े, आँखे रहे भिगोय ||
 
रहे कुशल नारी सदा, छल ना पायें धूर्त ।
संरक्षित निर्भय रहे, संग पिता-पति पूत ।  
तोते कौवे की बढ़ी, महल पास तादाद |
गिद्धराज की तब उन्हें, आई बरबस याद ।।
 
कौशल्या जब देखती, गिद्धराज सा गिद्ध |
याद जटायू को करे, किया प्यार जो सिद्ध ||

यह मोटा भद्दा दिखे, आत्मीय वह रूप |
यह घृणित चौकस लगे, उसपर स्नेह अनूप ||

गिद्ध-दृष्टि रखने लगा, बदला-बदला रूप |
अलंकार त्यागा सभी, बनकर रहे  कुरूप ||

केवल दशरथ जानते, होकर रहें सचेत |
अहित-चेष्टा में लगे, खर-दूषण से प्रेत ||

सुग्गासुर अक्सर उड़े, कनक महल की ओर |
देख जटायू को हटे, हारे मन का चोर ||

एक दिवस रानी गई, वन-रसाल उल्लास |
सुग्गासुर आया निकट, बाणी मधुर-सुभाष ||

माथे टीका शोभता, लेता शुक मनमोह |
ऊपर से अतिशय भला, मन में रखता द्रोह ||

 मत्तगयन्द सवैया 


  बाहर की तनु सुन्दरता मनभावन रूप दिखे मतवाला ।
साज सिँगार करे सगरो छल रूप धरे उजला पट-काला ।
मीठ विनीत बनावट की पर दंभ भरी बतिया मन काला ।
दूध दिखे मुख रूप सजे पर घोर भरा घट अन्दर हाला ।।

 


 रानी वापस आ गई, आई फिर नवरात |
नव-दुर्गा को पूजती, एक समय फल खात ||

स्नानकुंज में रोज ही, प्रात: करे नहान |
भक्तिभाव से मांगती, माता सम सन्तान ||

सुग्गासुर की थी नजर, आ जाता था पास |
 स्वर्ण-हार लेकर उड़ा, इक दिन वह आकाश ||
 
सुनकर चीख-पुकार को, वो ही भद्दा गिद्ध ||
शुक के पीछे लग गया, होकर अतिशय क्रुद्ध ||

जान बचाकर शुक भगा, था पक्का अय्यार ||
आश्रय पाय सुबाहु गृह, छुपा छोड़ के हार ||

  रानी पाकर हार को, होती हर्षित खूब |
राजा का उपहार वो, गई प्यार में डूब ||
 
 नवमी को व्रत पूर्ण कर, कन्या रही खिलाय  |
 चरण धोय कर पूजती, पूरी-खीर जिमाय ||

'रविकर' दिन का ताप अब, दारुण होता जाय |
पाँव इधर भारी हुए, रानी मन सकुचाय ||

 


अम्बिया की चटनी बने, प्याज पुदीना डाल ।
चटकारे ले न सके,  चिंता से बेहाल  ।। 

अपने गम में लिप्त सब, न दूजे का ख्याल ।
पुतली से रखते सटा, अपने सब जंजाल ।।

हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |
कोशिश चलने की करो, जीतो दुर्गम राह |

कुण्डली
मन की मनमानी खले,  रक्खो खीँच लगाम ।
हड़-बड़ में गड़बड़ करे, पड़ें चुकाने दाम ।
पड़ें चुकाने दाम, अर्थ हो जाय अनर्गल ।
ना जाने क्या कर्म, मर्म को लगे उछल-कर ।
सदा रखो यह ध्यान, शीर्ष का चुन लो प्राणी ।
अनुगामी बन स्वयं, रोक मन की मनमानी ।।
  सर्ग-1 : समाप्त 

4 comments:

  1. यहा एक अच्छा कार्य है आपका।
    कामना कारता हूँ कि आपका यह महाकाव्य शीघ्र पूरा हो!

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  2. बहुत रोचक विवरण..आभार!

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  3. बहुत ही सार्थक सृजन , अति शीघ्र महान एवम पुनीत
    कार्य को पूर्ण करने हेतु इश्वर से प्रार्थना

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  4. वाह! उत्तम ! आप कलम के जादूगर है, हिंदी साहित्य में आपका नाम अग्रगण्य रचनाकारों में गिना जायेगा, ऐसी सिर्फ कामना नहीं वरन विश्वास है.

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