दोहे
शिशिर जाय सिहराय के, आये कन्त बसन्त ।
अंग-अंग घूमे विकल, सेवक स्वामी सन्त ।
मादक अमराई मुकुल, बढ़ी आम की चोप ।
अंग-अंग हों तरबतर, गोप गोपियाँ ओप ।।
जड़-चेतन बौरा रहे, खोरी के दो छोर ।
पी पी पगली पीवरी, देती बाँह मरोर ।।
सर्षप पी ली मालती, ली ली लक्त लसोड़ ।
कृष्ण-नाग हित नाचती, सके लाल-सा गोड़ ।।
ओ री हो री होरियां, चौराहों पर साज ।
ताकें गोरी छोरियां, अघी अभय अंदाज ।
कुंडली
गोरी कोरी क्यूँ रहे, होरी का त्यौहार ।
छोरा छोरी दे कसम, ठुकराए इसरार ।
ठुकराए इसरार, छबीले का यह दुखड़ा ।
फिर पाया न पार, रँगा न गोरी मुखड़ा ।
लेकर रंग पलाश, करूँ जो जोरा-जोरी ।
डोरी तोड़ तड़ाक, रूठ जाये ना गोरी ।।
बहुत बढ़िया...
ReplyDeleteकविता की इस हर विधा का अपना रंग है..
मस्ती में डूबी पंक्तियाँ...
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