* लू के थपेड़े दें जला रविकर बदन
प्रेम के पेड़े बुझायें आग अब तो ।
*आज बच्चे खेलते बढ़िया गजट
भूल मत जाना मोबाइल वहां
* कनपटी के केस रविकर पक गए-
कन्या की चिंता बढ़ी सुरसा हुई
*पत्थरों को प्यार से पिघला सके-
जिस्म में वो दिल टूटा सा पड़ा ।
*अस्तित्व का एहसास रविकर कर सका -
वर्ना हवा में उड़ रहा था आज तक ।
*साग सरसों का सभी खाने लगे
बीज ही गायब हुवे उगते बबूल ।
*जँगले-दरवाजे फर्नीचर बनें
जंगलों की यूँ हमें दरकार है ।
*धरती गगन को एक करना चाहता
मानवी मकसद युगों से है यही ।
*खून से भी गर सने हों हाथ रविकर
चंद सिक्के जोर से बस मार दो ।
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteरविकर की जय हो!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (16-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
कनपटी के केस रविकर पक गए-
ReplyDeleteव्याह की चिंता बढ़ी सुरसा हुई
..कनपटी के केस पक गये फिर भी ब्याह की चिंता!:)
ब्याह के बदले बेटियों लिख देते तो भाव आ जाता।
ReplyDeleteभई वाह..
ReplyDeleteबढ़िया विचार कनिकाएं व्यंग्य कनिकाएं एक से बढ़के एक .
ReplyDelete*जँगले-दरवाजे फर्नीचर बनें
जंगलों की यूँ हमें दरकार है ।
* कनपटी के केस रविकर पक गए-
व्याह की चिंता बढ़ी सुरसा हुई
बहुत सुन्दर और सार्थक रचना |
ReplyDeleteआशा