Tuesday, 2 July 2013

उत्थानों की बात, करोगे कब रे थानों-

थानों में हैं मुर्गियां, हवालात में लात |
हवा लात खा पी करें, अण्डों की बरसात |

अण्डों की बरसात, नहीं तो डंडे बरसें |
बरसों से यह खेल, झेलती पब्लिक डरसे |

भोगे नक्सलवाद, देश मानों ना मानो |
उत्थानों की बात, करोगे कब रे थानों ||

6 comments:

  1. थाने दड़बे बन गये , मुर्गी थानेदार, कह रविकर कविराय सुनो तुम, जनता झेले डंडे की मर ,जोरदार

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बुधवार (03-07-2013) को बुधवारीय चर्चा --- १२९५ ....... जीवन के भिन्न भिन्न रूप ..... तुझ पर ही वारेंगे हम ....में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. अभी और झेलेंगे भाई ...

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  4. कटु सत्य...

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  5. बंद है थाने में मुर्गी और थाना बंद है , जुर्म में थाने का दरोगा जेल में बंद है ,सुन्दर

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