उल्टा-पुल्टा कर रही, मौत साल दर साल ।
जीवन को तो खा चुकी, खूब बजावे गाल ।
खूब बजावे गाल, धूप में दाल गलावे ।
समय-पौध जंजाल, माल-मदिरा उपजावे ।
रविकर कैसी लाश, समझती सब कुछ सुल्टा ।
पर पट्टा दुहराय, मौत को ढोती उल्टा ।।
जीवन को तो खा चुकी, खूब बजावे गाल ।
खूब बजावे गाल, धूप में दाल गलावे ।
समय-पौध जंजाल, माल-मदिरा उपजावे ।
रविकर कैसी लाश, समझती सब कुछ सुल्टा ।
पर पट्टा दुहराय, मौत को ढोती उल्टा ।।
जीवन को खाती रही ,वन भी खाये खूब
ReplyDeleteउसको भाती जिंदगी , जैसे कोमल दूब
जैसे कोमल दूब , मांगती कभी न पानी
जीवन खाती रहे,मौत की क्या जिनगानी !
सिर्फ आत्मा लूटे,न हाथ लगाती तन को
मुक्ति दायिनी मौत,मुक्त करती जीवन को
कमाल का कौशल कमाल के दोहों में .... शुभकामनायें रविकर साहब !
ReplyDeleteजीवन और मृत्यु में जंग जारी है,
ReplyDeleteसमझ लीजिये, प्रलय की तैयारी है।
बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपके लेखन का अंदाज शानदार है सर,|आपका आभार की आपने मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल किया |
ReplyDeleteनिराला अंदाज, उत्तम प्रस्तुति।
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