साँचा नाचा चतुर्दिक, शब्द अब्द कटि चोज ।
चुने चुनिन्दा चुनरियाँ, सोहै ओज उरोज |
सोहै ओज उरोज, रोज अभ्यास निरंतर |
दूर करे त्रुटि खोज, करे निर्मल तनु-अंतर |
भरे भाव रस छंद, बचे नहिं खाली खाँचा |
काव्य रचे मतिमंद, मिले जो गुरुवर साँचा ||
*चोज=सुभाषित /मजाकिया बात
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होता स्वाहा बोल के, समिधा देता डाल ।
खुश होता जब देव वह, देता दुगुना माल ।
देता दुगुना माल , यहाँ पतझर का स्वाहा ।
धरती पर हरसाल, होय वासंतिक हा हा ।
परिवर्तन का दौर, लगा ले भैया गोता ।
जो चाहे प्रभु राम, वही तो हरदम होता । ।
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कुंडलिओं आयाम देती एक गजल है आ रही ,मॉल क्या हर मॉल में ज्यामितीय बृद्धि करती आ रही है ; सच्चे गुरु गुरु ज्ञानी मिले कुंद बुद्धि खुल जय,मन बनी निर्मल करे,.होवत सज स्वाभाव , बेहतरीन
ReplyDeleteजो चाहे प्रभु राम ..
ReplyDeleteशुभकामनायें भाई जी !
बेहतरीन,गुरुवर.
ReplyDeleteबढ़िया है..
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति है ......
ReplyDeleteसादर , आपकी बहतरीन प्रस्तुती
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?
ये कैसी मोहब्बत है
रविकर जी, यह बात हमेशा सोचता हूँ ... आपकी कविताई नव छंद-अभ्यासियों के लिए काफी अच्छी है।
ReplyDeleteकोई भी लेखन विषय आपसे अछूता नहीं रहा होगा। आपका काव्य-मनोबल अद्वितीय है विषय कैसा भी क्यों न हो .. आप उसे छंद साँचे में ऐसा ढालते हैं कि अचरज हुए बिना नहीं रहता।
आप सारस्वत प्रतिभा के धनी हैं। आपसे अपेक्षा रहती है कि यदा-कदा काव्य-शिक्षण का उपदेश लाभ भी मिले। हम जैसे काव्य-श्रमिकों पर उपकार होगा।
एक अलग सी छटा..
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