मन सूबे से जिले से, जुड़े पंथ से लोग।
गर्व करें निज जाति पर, दूजी पे अभियोग। दूजी पे अभियोग, बढ़ी जाती कट्टरता । रविकर सोच उदार, तभी तो पानी भरता । भारी पड़ते दुष्ट, देख सज्जन मन ऊबे । सफल निरंतर होंय, दुर्जनों के मनसूबे ॥ गुर्गे-गुंडों में फँसी, फिर रजिया की जान | जान बूझ कर जानवर, वर का कर नुक्सान | वर का कर नुक्सान, झाड पर चढ़ा रखा है | कह कह तुझे महान, स्वाद हर बार चखा है | स्वार्थ कर रहे सिद्ध, पुन: कांग्रेसी मुर्गे | नहीं जगत कल्याण, नहीं ये तेरे गुर्गे || |
सरकारी अमला महफ़ूज़ न रहे तो आम आदमी ख़ुद को कैसे महफ़ूज़ महसूस करें ?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..
ReplyDeleteदुर्जनों के मनसूबे को तोड़ने की कोशिस तो करनी ही पडेगी गुरुदेव.सार्थक प्रस्तुति.
ReplyDeleteजब सुरक्षित है नहीं इस मुल्क की सर्कार क्या सुरक्षा वो
ReplyDeleteकरेगी आम लोंगो की जिन्दगी की बहुत सुन्दर
कोई भी पार्टी हो सब का एक ही काम - स्वार्थसिद्धि. अच्छी रचना, बधाई.
ReplyDeleteवहा बहुत खूब बेहतरीन
ReplyDeleteआज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
तुम मुझ पर ऐतबार करो ।
लाजवाब रचना...बहुत बहुत बधाई...
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