Friday, 6 September 2013

दुष्कर्मी दुर्दांत वो, सचमुच बड़ा समर्थ-

(1)
कोसा-काटी कोहना, कुल कौवाना व्यर्थ । 
दुष्कर्मी दुर्दांत वो, सचमुच बड़ा समर्थ । 

सचमुच बड़ा समर्थ, पाप का घड़ा बड़ा है । 
हरदम जिए तदर्थ, अडंगा कहाँ पड़ा है । 

कह रविकर कविराय, कीजिए किन्तु भरोसा । 
कड़ा दंड वो पाय, शुरू रख कोसी-कोसा-
कोसा-काटी = गाली दे दे कर कोसना -
कौवाना = अंड-बंड बकना 

(2)
मैया ताकत दूर तक, पर आवत नहिं पूत |
तन की ताकत तो ख़तम, मन करता आहूत |

मन करता आहूत, दूत यम के हैं आये । 
लेते लेते प्राण, दूत दोनों भरमाये । 

देखे ममता-मोह, चकित हैं प्राण हरैया ।
आजा आजा पूत, बहुत व्याकुल है मैया ॥ 

3 comments:

  1. बढ़िया। इस विधा में कम लिखा जा रहा है।

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  2. सुंदर रचना...
    आप की ये रचना आने वाले शनीवार यानी 7 सितंबर 2013 को ब्लौग प्रसारण पर लिंक की जा रही है...आप भी इस प्रसारण में सादर आमंत्रित है... आप इस प्रसारण में शामिल अन्य रचनाओं पर भी अपनी दृष्टि डालें...इस संदर्भ में आप के सुझावों का स्वागत है...



    कविता मंच[आप सब का मंच]


    हमारा अतीत [जो खो गया है उसे वापिस लाने में आप भी कुछ अवश्य लिखें]

    मन का मंथन [मेरे विचारों का दर्पण]

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।

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