Monday, 23 September 2013

रविकर देखे चाँद, कल्पना करे व्यवस्थित

व्यथित पथिक बरबस चले, लगे खोजने चैन |
मृग मरीच से अलहदा, मूँदे दोनों नैन |

मूँदे दोनों नैन, वैन वैरी हो जाते |
आती ज्यों ज्यों रैन, रोज त्यों त्यों उकताते |

रविकर देखे चाँद, कल्पना करे व्यवस्थित |
मुखड़े पर मुस्कान, पथिक हो गया अव्यथित || 

5 comments:

  1. बहुत खुब आदरणीय ।

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (24-09-2013) मंगलवारीय चर्चा--1378--एक सही एक करोड़ गलत पर भारी होता है|
    में "मयंक का कोना"
    पर भी है!
    हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सुन्दर रचना ::

    रविकर देखे चाँद ,कल्पना करे व्यवस्थित ,

    छोड़ "हाथ " साथ बावरे क्यों रहता तू व्यथित .

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  4. बहुत सुन्दर ,बहुत खूब

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