व्यथित पथिक बरबस चले, लगे खोजने चैन |
मृग मरीच से अलहदा, मूँदे दोनों नैन |
मूँदे दोनों नैन, वैन वैरी हो जाते |
आती ज्यों ज्यों रैन, रोज त्यों त्यों उकताते |
रविकर देखे चाँद, कल्पना करे व्यवस्थित |
मुखड़े पर मुस्कान, पथिक हो गया अव्यथित ||
बहुत खुब आदरणीय ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (24-09-2013) मंगलवारीय चर्चा--1378--एक सही एक करोड़ गलत पर भारी होता है|
में "मयंक का कोना" पर भी है!
हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना ::
ReplyDeleteरविकर देखे चाँद ,कल्पना करे व्यवस्थित ,
छोड़ "हाथ " साथ बावरे क्यों रहता तू व्यथित .
बहुत सुन्दर ,बहुत खूब
ReplyDeleteLatest post हे निराकार!
latest post कानून और दंड
बहुत सुन्दर ,बहुत खूब
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