Tuesday, 4 September 2012

मुद्रा से है ज्ञान, ज्ञान से बड़ी चाकरी -

माता ने बंधवा दिया, इक गंडा-ताबीज |
डंडे के आगे मगर, हुई फेल तदबीज |
हुई फेल तदबीज, लुकाये गुरु के डंडे  |
पड़े पीठ पर रोज, व्यर्थ सारे हतकंडे |
रविकर जाए चेत, पाठ नित पढ़ कर आता |
अक्षरश:दे सुना, याद कर भारति माता ||


जार जार शुभ ज्ञान है, शिक्षा बिक बाजार |
ऊंची कोठी शान है, ऊंचा गुरु आगार |
ऊंचा गुरु आगार, उदारीकरण दिखाए |
जब विदेश में नित्य, निवेशित ज्ञान कराये |
मुद्रा से है ज्ञान, ज्ञान से बड़ी चाकरी |
रिश्तों का अवसान, बुरा परिणाम आखरी || 


प्रश्न-काल को टाल दें, रविकर गुरु-घंटाल |
रट्टू तोते भी फंसे, पिंजरा अंतरजाल |
पिंजरा अंतरजाल, सतत सर्फिंग उपयोगी |
उभय पक्ष जब मस्त, भला कक्षा क्यूँ होगी ?
इंटरनेट पर चैट, तेज कर भेड़-चाल को  |
  जश्न-काल अल-मस्त, ख़तम कर प्रश्न-काल को  ||



 दोहे -2
विद्वानों के लिए वे, संस्थान दें खोल ।
करते बौद्धिक मस्तियाँ, बंद ढोल की पोल ।।

सत्ता से भत्ता मिले, छत्ता विकट सँभाल  ।
ओवर-लोडेड युवा ही, काटे नहीं बवाल ।।

 तुकबंदी-1
एकलव्य ने दिया अंगूठा, खुद से हुआ अपंग ।
द्रोण सरीखे गुरू हमेशा हैं सत्ता के संग ।

गिरगिटान सा रहे बदलते, शासक हरदम रंग ।
गाँव-राँव  की विकट परिस्थिति, शिक्षक चिन्तक दंग ।

लैप-टॉप की टॉफी से कर रहे तपस्या भंग ।
अधकचरी यह चुकी व्यवस्था, करते शोषक तंग ।

 घूम रही आधी आबादी, अब भी नंग धडंग ।
मानवता को लड़नी होगी फिर से तगड़ी जंग ।।

एकलव्य देने को आतुर अपना अंग-प्रत्यंग ।
 एक ही उसे बना लो , मुख्य धार का अंग ।
कुण्डली  
रमता जोगी ही करे, अब समता की बात |
सत्ता-स्वामी जानते, खुराफात संताप |
खुराफात संताप,  अंगूठा दिखा रहे अब |
एकलव्य को नाप,  द्रोण कहकहा रहे जब |
सत्ता लेती साध, साध रविकर न पाता |

पढ़ जाए इक आध, नहीं अब इन्हें सुहाता ||
 

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