Monday, 13 August 2012

कांडा कांदा परत दर परत, छील-छाल कर रहा चाबता-

नई रीति से प्रीति गीतिका, दादी अम्मा गौर कीजिये |
संसर्गों की होती आदी, याद पुराना दौर कीजिये |

आँखों को पढना न जाने, पढ़ी लिखी अब की महिलाएं -
वर्षों मौन यौन शोषण हो, किन्तु भरोसा और कीजिये |।

कांडा कांदा परत दर परत, छील-छाल कर रहा चाबता-
देह-यष्टि पर गिद्ध-दृष्टि है, हाथ मांसल कौर दीजिये |।

अधमी उधमी चामचोर को, देंह सौंपते नहीं विचारा-
दो पैसे घर वाले पाते, जालिम को सिरमौर कीजिये ।।


मीठी मीठी बातें करके, मात-पिता भाई बहलाए -
अनदेखी करते अभिभावक, क्यूँकर घर में ठौर दीजिये ??

व्यवसायिक सम्बंधो में कब, कोमल भाव जगह पा जाते -
स्वामी स्वामी बना सकामा, क्यूँ मस्तक पर खौर दीजिये ??

बेहतर रखो सँभाल, स्वयं से प्रिये लाज को-

चुलबुल बुलबुल ढुलमुला, घुलमिल चीं चीं चोंच |
बाज बाज आवे नहीं, हलकट निश्चर पोच |

हलकट निश्चर पोच, सोच के कहता रविकर |
तन-मन मार खरोंच, नोच कर हालत बदतर |

कर जी का जंजाल, सुधारे कौन बाज को |
बेहतर रखो सँभाल, स्वयं से प्रिये लाज को ||

तरह तरह के प्रेम हैं, अपना अपना राग-

तरह तरह के प्रेम हैं, अपना अपना राग |
मन का कोमल भाव है, जैसे जाये जाग |

जैसे जाये जाग, वस्तु वस्तुत: नदारद |
पर बाकी सहभाग, पार कर जाए सरहद |

जड़ चेतन अवलोक, कहीं आलौकिक पावें |
लुटा रहे अविराम, लूट जैसे मन भावे |

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर और सटीक..

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  2. तरह तरह के प्रेम हैं, अपना अपना राग |
    मन का कोमल भाव है, जैसे जाये जाग |

    बहुत बढ़िया, सुंदर रचना .
    सादर !

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  3. गहरी बात आसान मनोरंजक तरीके से कहने के लिए बधाई .

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