(1)
शठ शोषक सुख-शांत से, पर पोषक गमगीन |
आखिर तुझको क्या मिला, स्वयं जिन्दगी छीन |
आखिर तुझको क्या मिला, स्वयं जिन्दगी छीन |
स्वयं जिन्दगी छीन, खून के आंसू रोते |
देखो घर की सीन, हितैषी धीरज खोते |
दोषी रहे दहाड़, दहाड़े माता मारे |
ले कानूनी आड़, बचें अपराधी सारे ||
(2)
दो दो हरिणी हारती, हरियाणा में दांव |
हरे शिकारी चतुरता, महत्वकांक्षा चाव |
हरे शिकारी चतुरता, महत्वकांक्षा चाव |
महत्वकांक्षा चाव, प्रेम खुब मात-पिता से |
किन्तु डुबाती नाव, कहूँ मैं दुखवा कासे |
किन्तु डुबाती नाव, कहूँ मैं दुखवा कासे |
करे फिजा बन व्याह, कब्र रविकर इक खोदो |
दो जलाय दफ़नाय, तड़पती चाहें दो-दो ||
सार्थक और सामायिक.....
ReplyDeleteवाकई मारना क्यूँ????
सादर
अनु
*मरना
Deleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteजीना जब मरने से भी बदतर लगने लगता है तो मरना तो एक छोटा सा कदम जान पड़ता होगा!पर ये उसकी ही जीत मानी जाएगी जिसके कारण ऐसी स्थिति आई है!
ReplyDeleteउसको ठीक घोषित करने का एक अघोषित सा प्रयास ही तो है मरना!
कुँवर जी,
बहुत सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteविचारणीय सभी के लिए
ReplyDeleteसब राजनीति और चमक दमक के पीछे भागने का फेर है।
ReplyDeleteराजनितिक बिच्छुओं का दंस है....
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