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टिप्पणी भी अब नहीं छपती हमारी ।
छापते हम गैर की गाली-गँवारी ।
कक्ष-कागज़ मानते कोरा नहीं अब-
ख़त्म होती क्या गजल की अख्तियारी ।
राष्ट्रवादी आज फुर्सत में बिताते -
कल लड़ेंगे आपसी वो फौजदारी |
नाक पर उनके नहीं मक्खी दिखाती-
मक्खियों ने दी बदल अपनी सवारी ।
पोस्ट अच्छी आप की लगती हमें है
झेल पाता हूँ नहीं ये नागवारी ।
ढूँढ़ लफ्जों को गजल कहना कठिन है-
चल नहीं सकती यहाँ रविकर उधारी ।।
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