Tuesday, 9 October 2012

बनता जाय लबार, गाँठ जिभ्या में बाँधों-


फुर्सत जीवन में कहाँ, बहते रहे अबाध |
बहने से मिलती रहे,  ईश्वर भक्ति अगाध |
ईश्वर भक्ति अगाध, रास्ते ढेर दिखाते ।
उड़कर आऊं पास, छेकते रिश्ते-नाते ।
स्वार्थ सिद्धि का योग, पूर कर रविकर हसरत ।
  मेहरबानी-कृपा, मिले ना किंचित फुर्सत ।।



मरने से ज्यादा कठिन, जीना इस संसार ।
करे पलायन लोक से, होगा न उद्धार ।  
होगा न उद्धार, जरा पर-हित तो साधो ।
 बनता जाय लबार, गाँठ जिभ्या में बाँधों ।
फैले सत्य प्रकाश, स्वयं पर जय करने से । 
होय लोक-कल्याण, बुराई के मरने से ।   



विद्यार्थी गुणवान है, घालमेल में सिद्ध ।
व्यवहारिक विज्ञान पर, नजर जमी ज्यों गिद्ध ।
नजर जमी ज्यों गिद्ध, चिट्ठियाँ  लिखना आता ।
लेन-देन में निपुण, ढंग से है धमकाता ।
साम दाम सह दंड, जानता परम स्वार्थी ।
रहा सीखना भेद, सीख लेगा विद्यार्थी ।।


चिट्ठी बढ़िया है बनी, भारी भरकम शब्द ।
अब्द गरज बरसन लगे, बे-मौसम नव-अब्द ।
बे-मौसम नव अब्द, भिगोये अक्षर बाकी ।
कर फिर से प्रारब्ध, रखो सिम्पल टुक-टाकी ।
मौलिकता है प्रेम, लगे बाकी सब मिटटी ।
एकाकार स्वरूप, छोड़कर आ जा चिट्ठी ।।   

देहली सजनी से मिलन, करता कष्ट कपाट ।
लौह-हृदय कब्जे लगे,  देते
अन्तर पाट ।  

 देते अन्तर पाट , दुष्ट गिट्टक इ'स्टापर ।
खलनायक बन टांग, अड़ा देते नित-वासर ।

रविकर बड़ी महान, हमारी छोट सिटकिनी ।  

 'सुधि-सुधीर' आभार, मिलाती देहली सजनी ।।    



1 comment:


  1. अच्बछा टिपियाया है...
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति!

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