महानगर
दाही दायम दायरा, दुःख-दायी दनु-दित्य ।
कच्चा जाता है चबा, चार बार यह नित्य । चार बार यह नित्य, रात में ताकत बढती ।
तन्हाई निज-कृत्य, रोज सिर पर जा चढती ।
इष्ट-मित्र घर दूर, महानगरों की हाही ।
कभी न होती पूर, दायरा दायम दाही ।।
हाही=जरुरत दायम=हमेशा
दनु= दैत्यों की जननी दित्य=दैत्य
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भौजी
भौजी मइके क्या गईं, निकले बच्चू पंख ।
पड़ा खुला दरबार है, फूँक बुलाते शंख ।
फूँक बुलाते शंख, जमा सब नंगे साथी |
जमा शाम को रंग, नहीं कुछ प्रवचन-पाथी ।
किन्तु पले जासूस, जमे देखे मनमौजी ।
मोबाइल का नाश, फाट पड़ती है भौजी ।।
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प्राणान्तक चोट
जहर-मोहरा पीस के, लूँ दारू संग घोट ।
जहर बुझी बातें करें, जब प्राणान्तक चोट ।
जब प्राणान्तक चोट, पोट न तुमको पाया।
रविकर में सब खोट, आज भर पेट अघाया ।
प्रश्न-पत्र सा ध्यान, लगाना व्यर्थ हो रहा ।
अब सांसत में जान, पीसता जहर-मोहरा ।।
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आस्था
टंगड़ी मारे दुष्ट जन, सज्जन गिर गिर जाय ।
शैतानों की राय को, दो दद्दा विसराय । दो दद्दा विसराय, आस्था पर मत देना । रविकर नहीं सुहाय, नाव बालू में खेना । मिले सुफल मन दुग्ध, गाय हो चाहे लंगड़ी । वन्दनीय अति शुद्ध, मार ना दुर्मुख टंगड़ी ।। |
कान्हा
ऋतु आई है दीजिये, नव पल्लव की छाँव ।
कलम माँगती दान है, कान्हा दया दिखाव ।
कान्हा दया दिखाव, ध्यान का द्योतक पीपल।
फिर से गोकुल गाँव, पाँव हो जाएँ चंचल ।
छेड़ो बंशी तान, चुनरिया प्रीत चढ़ाई ।
कर दो यमुना पार, विकट वर्षा ऋतु आई ।।
ग्यानी / मूर्ख
दर्शन जीवन का लिए, गीता-गीत-सँदेश |
अगर कुरेदे दिन बुरे, बाढ़े रोग-कलेश |
बाढ़े रोग-कलेश, आज को जीते जाओ |
मध्यम चिंता-मग्न, जान झंझट में हर छन | जीते रविकर रेस, भूत-भावी विसराओ | दोनों ग्यानी मूर्ख, करें मस्ती में दर्शन | |
बढ़िया रचनाएँ !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (06-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
कुछ भी
ReplyDeleteकहा जाये
बहुत ही
कम है
रविकर की
कुण्डलियों में
बहुत दम है !