मन की गाँठे खोल दे, पाए मधुरिम स्वाद ।
मन की गाँठों से सदा, बढ़ता दुःख अवसाद ।
बढ़ता दुःख अवसाद, गाँठ का पूरा कोई ।
चले गाँठ-कट चाल, पकड़ के माथा रोई ।
अपना मतलब गाँठ, भगा देते गौ-ठाँठे ।।
रविकर श्रेष्ठ विचार, खोलना मन की गाँठे ।
ठाँठे = दूध न देने वाली
|
टूटा दर्पण कर गया, अर्पण अपना स्नेह ।
बोझिल मन आँखे सजल, देखा कम्पित देह । देखा कम्पित देह, देखता रहता नियमित । होता हर दिन एक, दर्द नव जिस पर अंकित । कर पाता बर्दाश्त, नहीं वह काजल छूटा। रूठा मन का चैन, तड़प के दर्पण टूटा ।। |
उत्तर मिलता है कभी, कभी अलाय बलाय ।
प्रश्नों का अब क्या कहें, खड़े होंय मुंह बाय ।
खड़े होंय मुंह बाय, नहीं मन मोहन प्यारे ।
सब प्रश्नों पर मौन, चलें वैशाखी धारे ।
वैशाखी की धूम, लुत्फ़ लेता है रविकर ।
यूँ न प्रश्न उछाल, समय पर मिलते उत्तर ।।
|
अजब गजब अंदाज है, बात करें चुपचाप ।
इक जगह पर हों खड़े, खुद की सुन पदचाप ।
खुद की सुन पदचाप, गजब दीवानापन है ।
बारिश में ले भीग, प्रेम रस का आसन है ।
फिर मिलने की बात, आज मत करना भाई ।
सही जाय नहिं सही, कहीं से यह रुसवाई ।।
|
मरने से जीना कठिन, पर हिम्मत न हार ।
कायर भागे कर्म से, होय कहाँ उद्धार ?
होय कहाँ उद्धार, चलो पर-हित कुछ साधें ।
बनिए नहीं लबार, गाँठ जिभ्या पर बांधें ।
फैले रविकर सत्य, स्वयं पर जय करने से ।
जियो लोक हित मित्र, मिले न कुछ मरने से ।
|
सभी कुण्डलियाँ उच्चकोटि की हैं!
ReplyDelete