Sunday, 7 October 2012

भगवती शांता परम में शामिल कुण्डलियाँ





मन की गाँठे खोल दे, पाए मधुरिम स्वाद ।
मन की गाँठों से सदा, बढ़ता दुःख अवसाद ।
बढ़ता दुःख अवसाद, गाँठ का पूरा कोई ।
चले गाँठ-कट चाल, पकड़ के माथा रोई ।
अपना मतलब गाँठ, भगा देते गौ-ठाँठे ।। 
रविकर श्रेष्ठ विचार, खोलना मन की गाँठे
ठाँठे = दूध न देने वाली

टूटा दर्पण कर गया, अर्पण अपना स्नेह ।
बोझिल मन आँखे सजल, देखा कम्पित देह ।
देखा कम्पित देह, देखता रहता नियमित ।
होता हर दिन एक, दर्द नव जिस पर अंकित ।
कर पाता बर्दाश्त, नहीं वह काजल छूटा।
रूठा मन का चैन, तड़प के दर्पण टूटा ।।  


उत्तर मिलता है कभी, कभी अलाय बलाय ।
प्रश्नों का अब क्या कहें, खड़े होंय मुंह बाय ।
खड़े होंय मुंह बाय, नहीं मन मोहन प्यारे ।
सब प्रश्नों पर मौन, चलें वैशाखी धारे ।
वैशाखी की धूम, लुत्फ़ लेता है रविकर ।
यूँ न प्रश्न उछाल, समय पर मिलते उत्तर ।।


अजब गजब अंदाज है, बात करें चुपचाप ।
इक जगह पर हों खड़े, खुद की सुन पदचाप ।
 खुद की सुन पदचाप, गजब दीवानापन है ।
बारिश में ले भीग, प्रेम रस का आसन है ।
फिर मिलने की बात, आज मत करना भाई ।
सही जाय नहिं सही, कहीं से यह रुसवाई ।।


मरने से जीना कठिन, पर हिम्मत न हार ।
 कायर भागे कर्म से, होय कहाँ उद्धार ?
होय कहाँ उद्धार, चलो पर-हित कुछ  साधें ।
 बनिए नहीं लबार, गाँठ जिभ्या पर बांधें ।
फैले रविकर सत्य, स्वयं पर जय करने से । 
 जियो लोक हित मित्र, मिले न कुछ मरने से ।   

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