ग्यानी है हर शिक्षिका, समझे हर गुण-दोष ।
मुखड़ा लेकिन नहिं लखे, दर्पण में अफ़सोस । दर्पण में अफ़सोस, दूध में दिखे कमायी ।
गर परचून दूकान, मिलावट कर व्यवसायी ।
पुलिस भ्रष्टतम किन्तु, गौर कर अरी सयानी।
कक्षा में यह बात, सुना क्यूँ बनती ग्यानी ।।
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करते
सज्जन कर्म शुभ, स्वयं समर्पित सुज्ञ |
मीन-मेख ढूँढा करें, किन्तु कुतर्की विज्ञ |
किन्तु कुतर्की विज्ञ, कृत्य खुद के खुब भायें |
करे अनैतिक काम, सही ठहराते जाएँ |
जाने पथ्यापथ्य, मगर नित मांस डकरते ||
सम्मुख शाश्वत सत्य, टिप्पणी उलटी करते | |
बातें ही बातें विषद, धनी बात का होय ।
परहित बातें कर रहा, अपना *आपा खोय ।
अपना *आपा खोय, हास्य को है अपनाता ।
हँसने का सन्देश, सभी को सदा सुनाता ।
कुछ लोगों को किन्तु, नहीं हम दोनों भाते ।
ग्यानी उल्लू देख, लोग अक्सर मुँह बाते ।
*विनीत भाव ग्रहण करना
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खादी की यह दुर्दशा, गांधी का अपमान |
बर्बादी का है जमा, हर साजो-सामान | हर साजो-सामान, सभी ग्रामोदय भूले | मची हुई है होड़, आसमाँ को झट छूलें | गांधी दर्शन मूल, किन्तु पश्चिम के आदी | संस्कार सब भूल, भूलते जाते खादी || |
बने भीड़ की यह सदा, परभावी आवाज |
भेड़-भेड़ियों दुष्ट से, रक्षित रहे समाज | रक्षित रहे समाज, भूमि पर आय भास्कर | कर दे पावन सोच, दुष्टता -पाप जलाकर | रविकर का विश्वास, हिफाजत करे नीड़ की | सत्ता जाए चेत, सुने आवाज भीड़ की || |
मालिक तड़पे दर्द से, बाम मलाये हाथ |
नौकर मलता जा रहा, पीठ दर्द के साथ | पीठ दर्द के साथ, रखे होंठों को भींचे | अश्रु बहे चुपचाप, आग भट्ठी की सींचे |
माता है बीमार, तभी आजादी हड़पे |
सहता नौकर जुल्म, नहीं तो मालिक तड़पे || |
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