अंकुश हटता बुद्धि से, भला लगे *भकराँध ।
भूले भक्ष्याभक्ष्य जब, भावे विकट सडांध । भावे विकट सडांध, विसारे देह देहरी । टूटे लज्जा बाँध, औंध नाली में पसरी ।। नशा उतर जब जाय, होय खुद से वह नाखुश । कान पकड़ उठ-बैठ, हटे फिर संध्या अंकुश ।। *सड़ा हुआ अन्न |
आशंका चिंता-भँवर, असमंजस में लोग ।
चिंतामणि की चाह में, गवाँ रहे संजोग ।
गवाँ रहे संजोग, ढोंग छोडो ये सारे ।
मठ महंत दरवेश, खोजते मारे मारे ।
एक चिरंतन सत्य, फूंक चिंता की लंका ।
हँसों निरन्तर मस्त, रखो न मन आशंका ।।
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घोंघे करते मस्तियाँ, मीन चुकाती दाम ।
कमल-कुमुदनी से पटा, पानी पानी काम ।
पानी पानी काम, केलि कर काई कीचड़ ।
रहे नोचते *पाम, काइयाँ पापी लीचड़ ।
भौरों की बारात, पतंगे जलते मोघे ।।
श्रेष्ठ विदेही पात, नहीं बन जाते घोंघे ।
*किनारी की छोर पर लगी गोटी
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रमिया घर-बाहर खटे, मिया बजाएं ढाप ।
धर देती तन-मन जला, रहा निकम्मा ताप । रहा निकम्मा ताप, चढ़ा कर देशी बैठा | रहा बदन को नाप, खोल कर धरै मुरैठा । पति परमेश्वर मान, ध्यान न देती कमियां। लेकिन पति हैवान, बिछाती बिस्तर रमिया ।। |
रिश्वत-मद नस-नस बहे, बेबस बुद्धि-शरीर ।
श्रोता-पाठक एक से, प्यासे छोड़ें तीर ।
प्यासे छोड़ें तीर, तीर सब कवि के सहता ।
विषय बड़ा गंभीर, कभी न कुछ भी कहता ।
जाए टिप्पण छोड़, वाह री उसकी किस्मत ।
चाहे बाँह मरोड़, जाय देके कुछ रिश्वत । |
हँसमुख जी हँसते रहें, हरदम हँसी-मजाक ।
लेकिन इक दिन कट गई, बीच मार्केट नाक ।
बीच मार्केट नाक, नमस्ते भाभी कह के ।
बच्चे तो गंभीर, मिले मुखड़ा ना चहके ।
बोलो हँसमुख बाप, कौन है इनका भाई ।
शीघ्र बताओ नाम, नहीं तो बोले माई ।। |
मन की साथी आत्मा, जाओ तन को भूल ।
तृप्त होय जब आत्मा, क्यूँ तन खता क़ुबूल ?
क्यूँ तन खता क़ुबूल, उमरिया बढती जाए ।
नहीं आत्मा क्षरण, सुन्दरी मन बहलाए ।
बुड्ढा होय अशक्त, आत्मा भटका हाथी ।
ताक-झाँक बेसब्र, खोजता मन का साथी ।। |
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteदिल बाग-बाग हो गया!
आशंका चिंता-भँवर, असमंजस में लोग ।
ReplyDeleteचिंतामणि की चाह में, गवाँ रहे संजोग ।
गवाँ रहे संजोग, ढोंग छोडो ये सारे ।.........छोड़ो......
मठ महंत दरवेश, खोजते मारे मारे ।
एक चिरंतन सत्य, फूंक चिंता की लंका ।
हँसों निरन्तर मस्त, रखो न मन आशंका ।।
घोंघे करते मस्तियाँ, मीन चुकाती दाम ।
कमल-कुमुदनी से पटा, पानी पानी काम ।..
पानी पानी काम, केलि कर काई कीचड़ ।
रहे नोचते *पाम, काइयाँ पापी लीचड़ ।.......नोंचते .....
भौरों की बारात, पतंगे जलते मोघे ।।
श्रेष्ठ विदेही पात, नहीं बन जाते घोंघे ।.........ये मोघे क्या चीज़ है भाईसाहब !हमें नहीं मालूम यह जनपदीय प्रयोग .....
मन की साथी आत्मा, जाओ तन को भूल ।
तृप्त होय जब आत्मा, क्यूँ तन खता क़ुबूल ?
क्यूँ तन खता क़ुबूल, उमरिया बढती जाए ।.........बढ़ती ....
नहीं आत्मा क्षरण, सुन्दरी मन बहलाए ।
बुड्ढा होय अशक्त, आत्मा भटका हाथी ।
ताक-झाँक बेसब्र, खोजता मन का साथी ।।........बढ़िया व्यंजनाएं हैं सभी .बधाई .