खांटी दीदी गिरी है, रहे मौन सरदार |
वाजिब हक़ की मांग भी, दे सरदार नकार | दे सरदार नकार, हुई वो आग-बबूली | गर बैठूं मैं मार, कहो गुंडा मामूली | इसीलिए लो झेल, मरे माँ मानुष-माटी | रेल तेल का खेल, कहे दीदी यह *खांटी || *विशुद्ध |
तो-बा-शिंदे बोल तू , तालिबान अफगान-
तो-बा-शिंदे बोल तू , तालिबान अफगान ।
काबुल में विस्फोट कर, डाला फिर व्यवधान ।
डाला फिर व्यवधान, यही क्या यहाँ हो रहा ?
होता भी है अगर, वजीरी व्यर्थ ढो रहा ।
फूट व्यर्थ बक्कार, इन्हें चुनवा दे जिन्दे ।
होवे खुश अफगान, पाक के तो बाशिंदे ।।
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दोनों रचनाएँ अच्छी है और सटीक है.
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