चखना है श्रृंगार रस, हो जाता वीभत्स ।
कहते गुरुवर यह नहीं, तेरे बस का वत्स ।
तेरे बस का वत्स, बैठ जा मार कुंडली ।
गली गली में भटक, ढूँढ़ता नाहक अगली ।
आजा रविकर पास, ध्यान नुक्कड़ का रखना ।
है अंग्रेजी-शॉप, साथ ले आना चखना ।।
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मनमौजी मम मनचली, मनमथ मथ मन जाय ।
मनसायन में मात्र मैं, मन-मोहिनी लुकाय ।
मन-मोहिनी लुकाय, आय नहिं सम्मुख मेरे ।
तन्हाई यह खाय, याद के मेघ घनेरे ।
आजा हो बरसात, कलेजा बने कलौंजी ।
खाओ लेकर स्वाद, देह रविकर मनमौजी ।।
मनमथ = कामदेव
लुकाय = छुप जाय
मनसायन = प्रेमियों के बैठने का स्थान
कलौंजी = परवल / करेला को चीरकर मसाला भरकर
तैयार की गई तरकारी ।
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चर्चा करने के लिए, कमर्शियल ले ब्रेक ।
अपनी मर्जी थोपते, एंकर कुछ कुछ क्रेक ।
एंकर कुछ कुछ क्रेक, साथ में सेलिब्रिटी भी ।
मन-गढ़ंत आरोप, चिढ़ाती काली जीभी ।
गर चर्चा का दौर, रखो विज्ञापन बाहर ।
करिए इस पर गौर, मीडिया रविकर सादर ।।
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बहुत अच्छी !!
ReplyDeleteबहुत खूब!
ReplyDeleteसभी खबरी कुंडलियाँ जबर्दस्त कटाक्ष हैं। वाह रविकर जी वाह!
ReplyDeleteसुन्दर मनभावन कविता ....... अविरल प्रवाहमयी .....
ReplyDeleteप्रभावशाली ,
ReplyDeleteजारी रहें।
शुभकामना !!!
आर्यावर्त (समृद्ध भारत की आवाज़)
आर्यावर्त में समाचार और आलेख प्रकाशन के लिए सीधे संपादक को editor.aaryaavart@gmail.com पर मेल करें।
शानदार कुण्डलिया, वाह...........
ReplyDeleteबढ़िया .....आप भी पधारो स्वागत है ...http://pankajkrsah.blogspot.com
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